अपराजेय शक्ति है सत्य

हम यह जानते हैं कि सत्य शास्वत है। सत्य एक प्रातिभ दर्शन है। यह किसी पर आश्रित नहीं, इसकी एक स्वतंत्र सत्ता है। सत्य को शब्दों में व्यक्त करना कठिन है, परन्तु विस्मय की बात यह है कि इसकी अनुभूति करना सरल है। अपने हृदय में व्यक्ति सत्य को आसानी से महसूस कर सकता है।
अब प्रश्न यह आ सकता है कि इसे हम कैसे और कब जान सकते हैं। आप जानते हैं कि अन्याय , उपेक्षा और अपमान भावात्मक अवगुण हैं। जब इन गुणों का उभार होता है और यह अपनी सीमा लांघ ते हैं तभी सत्य प्रकट हो जाता है। इस परिस्थिति में सत्य किसी के आव्हान का आश्रित नहीं है। जिस समय असत्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचता है, उसी समय सत्य की भूमिका प्रारंभ हो जाती है। तब हम उसका साक्षात्कार करते हैं।
महाभारत में जब पांडवों के साथ अन्याय होने लगा। उनकी उपेक्षा होने लगी। कौरवों द्वारा उनका छोटी-छोटी बातों पर अपमान किया जाने लगा। उनके द्वारा अत्याचार चरम पर पहुंच गया। माता कुंती सहित पांडवों को तब भविष्य का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। वीर और समर्थ होते हुए भी पांडव असहाय से हो गए। उनके जीवन में अंधकार छा गया। तभी श्रीकृष्ण के रूप में सत्य एक प्रकाश बनकर प्रकट हुआ। उन्होंने बुआ कुंती को उनके दुख के शीघ्र निवारण होने हेतु उन्हें आश्वस्त किया। पांडवों की ओर से उन्होंने पैरवी की।
श्रीकृष्ण जी राजा धृतराष्ट्र के पास गए। उन्होंने राजा से पांडवों को उनका हिस्सा देने का अनुरोध किया। राजा ने इसे ठुकरा दिया। अंत में उन्होंने पांडवों को केवल 5 गांव देने का प्रस्ताव रखा। उनके इस प्रस्ताव के उत्तर में दुर्योधन ने क्रोध भरकर दंभ में कहा, पांडवों को 5 गांव तो क्या उन्हें सुई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं मिलेगी।
इस प्रसंग में हम देखते हैं कि मनुष्य के हृदय में जब घृणा, लोभ, मोह , क्रोध और दंभ ऊपर रहता है , तब वह दूसरों पर अत्याचार करने लगता है। उसका विवेक शून्य की स्थिति में पहुंच जाता है। वह हर अच्छी बातों को संदेह की दृष्टि से देखने लगता है। वह अपनों की उपेक्षा और अपमान करने लगता है। बस , यहीं से उसके पतन का प्रारंभ होने लगता है और सत्य प्रकट हो जाता है।
सत्य यहां ऊर्जा के रूप में उपेक्षित, अपमानित और असहाय लोगों के हृदय में प्रवेश करता है। यही ऊर्जा एक शक्ति के रूप में उभर कर हमारे सामने आती है। असत्य के मार्ग पर चलने वाले अहंकारी मनुष्यों को, सत्य साथ लेकर चलने वाले असहाय और दुर्बल व्यक्ति हरा देते हैं। तात्पर्य यह है कि अवगुणों का व्यक्ति को त्याग करना चाहिए और सद्गुणों को अपनाना चाहिए।

श्रीराम माहेश्वरी

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