चुनाव में अटकी, मौके पर चाौका लगाती बायोपिक ‘पीएम नरेन्द्र मोदी’ -विनोद नागर

गुरुवार को विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र में दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा ने भारत की केंद्रीय सत्ता में बने रहने का जनादेश प्राप्त किया। ईवीएम से झरे चुनावी नतीजों ने ‘एवरीवन वोटेड मोदी‘ की मुहर लगाते हुए विरोधियों के मुंह बंद कर दिये। आने वाले दिनों में सबकी निगाहें प्रधानमंत्री के बतौर नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल पर टिकी रहेंगी। अब जबकि भारतीय राजनीति के बाॅक्स आफिस पर बहुप्रतीक्षित नरेंद्र मोदी रिटर्न्स का प्रीमियर धूम धड़ाके से हो चुका है, लोकसभा चुनाव के दौरान आचार संहिता में अटकी उनकी बायोपिक ‘पीएम नरेंद्र मोदी‘ ने भी मौके पर चैका मार दिया है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि बाॅलीवुड में बाॅक्स आॅफिस पर नमो की इस बायोपिक को दर्शकों का कैसा प्रतिसाद मिलता है। चूंकि नमो के जीवन से जुड़ी अधिकांश घटनाएं और प्रसंग पहले ही काफी सुर्खियां बटोर चुके हैं अतः कहना गलत न होगा कि निर्माता सुरेश ओबेराॅय और निर्देशक ओमंग कुमार ने यह फिल्म अगर 2014 में बनाई होती तो शायद लोगों को ज्यादा लुभाती। फिल्म को हिन्दी सहित तेईस अलग अलग भाषाओं में रिलीज करने की बात कही जा रही है पर यहां बैंगलोर में कन्नड़ संस्करण तो कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा,जबकि कर्नाटक में मोदी के नाम पर भाजपा ने लोकसभा की 28 में से 25 सीटें जीती हैं।

बेशक निर्माता ‘पीएम नरेंद्र मोदी‘ को भारत में कार्यरत प्रधानमंत्री के जीवन पर केन्द्रित पहली फिल्म बताकर अघा रहे हैं। लेकिन वास्तव में इसे नमो की जीवनी या जीवनवृत्त के बजाय भारत की पहली सच्ची, निर्भिक और बेबाक राजनीतिक फिल्म निरूपित किया जाना उचित रहेगा। वह इसलिए कि इसमें कहानी से ज्यादा दमदार वह कंटेंट है जिसने पिछले चार दशक में समूची भारतीय राजनीति की दिशा और दशा को बदलकर रख दिया है। 

घ्फिल्म की कहानी 2013 में भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किये जाने से शुरू होती है और चुनाव में विजयी होने पर बिना शपथग्रहण समारोह दिखाये एकदम समाप्त हो जाती है। इस बीच मोदी के बचपन और युवावस्था के मार्मिक व रोचक प्रसंगों के बाद उनके राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़ने, 1975 में आपातकाल की ज्यादतियों, इंदिरा विरोधी लहर के चलते 1977 के चुनाव में जनता पार्टी की विजय और पहली बार केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार के सत्तारूढ़ होने से लेकर भाजपा के अभ्युदय तक के राजनीतिक घटनाक्रम को स्पर्श करते हुए फिल्म मोदी के सह्रदय, सेवाभावी, बुद्धिमान और दृढ़संकल्पित व्यक्तित्व को रेखांकित करती है। अगले हिस्से में मोदी के सक्रिय राजनीति में प्रवेश, चुनावी रणनीति, गुजरात को प्रखर नेतृत्व, साम्प्रदायिकता के कुटिल राजनीतिक पैंतरों से निपटने की चुनौती के चर्चित किस्से दिलचस्प बन पड़े हैं।

निर्देशक ने युवावस्था में मोदी के जीवन पर देवआनंद की फिल्म ‘गाईड‘ में वर्णित दार्शनिकता के असर को भी बखूबी दिखाया है। गौतम बुद्ध की तरह घर परिवार त्यागकर  साधु सन्यासी बनने की इच्छा और ऋषिकेश में अपने दीक्षा गुरु के सान्निध्य में योगी से कर्मयोगी बनने का विकल्प चुनने का प्रसंग गहराई लिए है। इसमें गुरू शिष्य की भूमिका में पिता पुत्र (सुरेश ओबेराय विवेक ओबेराय) की केमिस्ट्री देखते ही बनती है। ऋषिकेश में ‘‘मन फकीरा चैन न पावे‘‘ गीत का उम्दा फिल्मांकन मनमोहक है।

       केन्द्रीय भूमिका में विवेक ओबेराय ने काफी मेहनत की है। अमित शाह का किरदार मनोज जोशी ने अच्छे से निभाया है। बोमन ईरानी रतन टाटा बने हैं। इंदिरा गांधी के रोल में किशोरी शहाणे, मोदी के पिता दामोदरदास मोदी के रोल में राजेंद्र गुप्ता, मां हीराबेन के रोल में जरीना वहाब और पत्नी जशोदाबेन के रोल में बरखा सेनगुप्ता असरदार हैं। ‘मेरीकाम‘ और ‘सरबजीत‘ के बाद ‘पीएम नरेंद्र मोदी‘ ओमंग कुमार द्वारा निर्देशित तीसरी बायोपिक फिल्म है। मोदी के जीवन में घटित घटनाओं और प्रसंगों का नाट्य रूपांतरण कर फिल्म के सह निर्माता संदीप एस सिंह ने जो ‘कहानी‘ लिखी उससे कई गुना ज्यादा मेहनत अनिरुद्ध चावला ने उसे एक सुगठित पटकथा में तब्दील करने में की है। इस कसी हुई पटकथा को एक जानदार फिल्म के रूप में दर्शकों तक पहुंचाने का काम निर्देशक ओमंग कुमार, सिनेमाटोग्राफर सुनीता राडिया और फिल्म एडिटर संजय सांकला ने पूरी शिद्दत से किया है। इसके लिए वे सराहना के पात्र हैं।

निर्देशक ने आडवाणी की रथयात्रा, मुरलीमनोहर जोशी की एकता यात्रा, श्रीनगर के लाल चैक में तिरंगा फहराने की जिद, भुज में भूकंप त्रासदी, गोधरा कांड से गुजरात में हुए दंगे, अक्षरधाम आतंकी हमला, अमेरिका द्वारा वीजा देने से इन्कार, टाटा को निवेश का आमंत्रण, इन्वेस्टर्स समिट, गर्वी गुजरात, टीवी न्यूज चैनलों की गैर जिम्मेदार पत्रकारिता, भ्रष्ट मंत्रि व उद्योगपति को सबक सिखाने और नौकरशाहों पर नकैल कसने तथा चाय वाले के टैग को अपने आफिस में चरितार्थ करते उन प्रसंगों को बड़ी कुशलता से फिल्माया है, जो मोदी की लार्जर देन लाइफ इमेज नहीं वरन रियेलिटी को एक विराट सोच में बदलते हैं। मोदी और अमित शाह की जोड़ी कैसे जय और वीरू तथा तेंदुलकर सहवाग की जोड़ी का पर्याय बनी, इसका सहज खुलासा भी फिल्म करती है। फिल्म केवल मोदी के जीवन वृत्त का कोरा महिमा मंडन नहीं करती है और न ही उनकी जिंदगी के उतार चढाव का भावुक चित्रण। फिल्म मे मोदी के जीवन के विविध प्रसंगों का रोचक समावेश किया गया है। फिल्म में ओमंग कुमार की निर्देशकीय पकड़, चुस्त संपादन और तेज गति से दर्शकों की उत्सुकता पूरे समय बनी रहती है। आखिर में मोदी का लाजवाब कर देने वाला इंटरव्यू और पटना के गांधी मैदान की रैली में हत्या की साजिश को विफल करनेवाला क्लाईमेक्स जोरदार है।

फिल्म के जोशीले संवाद दर्शकों में हिलोर पैदा करते हैं-  जब तक देश की महिलाए मजबूर हैं देश मजबूत नहीं हो सकता.. चाय पे चर्चा मतलब बिना खर्च शिक्षा.. हमेशा पैर जमीन पर और नजरें आसमान पर रखना.. कुर्सी के कीड़ों को मैं देश नहीं खाने दूंगा.. नाव डुबाने के लिए एक ही छेद काफी है.. ये देश के पीएम हैं पर कश्मीर मे दो गज जमीन नहीं खरीद सकते.. जीतने वाले से ज्यादा हारने वाले को जीत की कद्र होती है.. इलेक्शन पैसों से नहीं लोगों से जीते जाते हैं.. जीतने का मजा तब आता है जब सब आपके हारने की उम्मीद करते हैं..जो देश को चाहते हैं वो कुछ और नहीं चाहते.. अफसोस इस बात का है कि हिंदुस्तान तो बन गया पर हम हिंदुस्तानी न बन पाये.. टाटा ने हिंदुस्तान को नहीं बनाया हिंदुस्तान ने टाटा को बनाया है.. जो डिसीजन एक मिनट मे नहीं होता वो डिसीजन ही नहीं होता.. हिंदुईज्म की वजह से हिंदुस्तान सेक्यूलर है क्योंकि हिंदुस्तान में धर्म से बढकर देश है.. मैं आपके इस वोट बैंक का एकाऊंट ही बंद कर दूंगा.. मोदी एक इंसान नहीं सोच है।

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