एक छाँव नीम की

शिशिर उपाध्याय

मध्यप्रदेश के निमाड़ जनपद की तासीर एकदम नीम जैसी है,यहाँ जैसे जैसे धूप पड़ती है, और गर्मी की तपन बढ़ती है, नीम की पत्तियाँ लहलहकर शीतलता बिखेरती हैं, निमाड़ में एक ऐसे ही नीम थे” पं रामनारायण उपाध्याय – रामा दादा, जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व की घनी छाँव ने न केवल निमाड़ वरन देश के सम्पूर्ण साहित्य को अपनी शीतलता प्रदान की।
वर्ष 1974 नवम्बर दिसम्बर की बात है, मै ग्यारहवीं कक्षा में था, उस समय ग्यारहवीं में ही हायर सेकंडरी बोर्ड की परीक्षा होती थी। बोर्ड के फार्म भरने थे, गवर्नमेंट मल्टीपर्पज स्कूल के सीढ़ीनुमा हाल में फार्म भरवाए गए। पिता के स्थान पर “रामनारायण उपाध्याय” भर दिया।
दूसरे दिन कक्षा शिक्षक चिल्लाए, कक्षा में खड़ा करवा कर बोले, ये हैं मूर्ख शिशिर उपाध्याय, बाप का नाम भी नहीं मालूम, पूरी कक्षा हँस दी, बड़ा लज्जित हुआ, हालाँकि बड़े भाई ललितनारायण उपाध्याय जो उसी स्कूल में शिक्षक थे,उन्होंने सुधरवा कर “शिवनारायण उपाध्याय” करवा दिया था। ये घटना उस संयुक्त परिवार की है जिसमें हमें पता ही नहीं चला कि हमारे पिता कौन है, हमने आजीवन आ दादा को पिता से बढ़ कर और बड़ी बाई को माता से बढ़ कर माना। परिवार में कभी किसी को लगा ही नहीं के ये हमारे पिता के बड़े भाई हैं। बहुत कम लोग यह जानते हैं कि पण्डित रामनारायण जी की कोई संतान नहीं थी, इसका कारण ये रहा कि हम चार भाइयों और पाँच बहनों ने किसी को ऐसा महसूस होने ही नहीं दिया, और ना ही हमारे बाई बाबूजी ने कभी हमे जताया।ऐसा नहीं कि कोई संतान हुई नहीं, उन्हें दो संताने हुईं जो कि शैशव काल में ही काल कवलित हो गई।आ दादा साक्षात सन्त व्यक्ति थे और हमारी बड़ी बाई भी उतनी ही मयालू-दयालू थी। बरसों पहले जब गाँव कालमुखी मे बँटवारा हुआ तो आ रामा दादा ने अपने छोटे भाई शिवा के साथ रहना पसन्द किया। हमारे आजा दादा पं सिद्धनाथ मुकुन्दराम उस समय मालगुज़ार थे।अतः उनके खण्डवा में भी दो तीन मकान थे। समय के साथ सभी को पढ़ाने के लिए खण्डवा आना पड़ा। खण्डवा में आ दादा और बड़ी बाई रहते थे और बाई, बाबूजी गाँव में।
जब मैं चौथी में गया था तब मुझे भी जबरजस्ती खण्डवा भेज दिया गया, मेरी इच्छानुसार मेन हिन्दी स्कूल खड़कपुरा में नाम दर्ज करवाया गया।
खण्डवा घर का सम्पूर्ण वातावरण साहित्यिक और राजनैतिक था, बड़े-बड़े नेता साहित्यकार पत्रकार घर आते जाते रहते थे। दादा के साथ बुधवारा जलेबी खाते जाते समय कर्मवीर प्रेस गली में अक्सर एक गोरे-गोरे कपसिले हँसमुख वृद्ध के यहाँ रुकना होता था, खूब गप्पें चलती थी, हमें तनाव होता था कि जलेबी का पाया खत्म न हो जाए। बहुत धोती खेंचने पर दादा बमुश्किल वहाँ से उठते थे,वह वयोवृद्ध व्यक्ति भी हमें प्यार से थपकी देता था, बाद में पता चला कि यह व्यक्ति “एक भारतीय आत्मा पं माखनलाल चतुर्वेदी थे। आज भी मैं अपने गालों पर उनका प्रेमिल स्पर्श महसूस करता हूँ।
गाँव के लोक-सांस्कृतिक सांचे से खण्डवा के साहित्यिक परिवेश में ढ़लने में थोड़ा समय लगा, किन्तु रामादादा भी पक्के कुम्भकार थे मुझ जैसे घड़े को घड़ने में कुछ कोर कसर नहीं छोड़ी, अन्दर बाहर खूब पजाया।
दादा के साथ साये की तरह रहने लगा तो कवि सम्मेलन भी खूब सुने, तुक बंदी सीख ली, कह लें तो दस वर्ष की उम्र में चौथी कक्षा में ही पहली कविता लिखी-
“दिन की बाट”
नीचे सोयें, चूहे काटें,
जब सोयें पर खाट
रात भर खटमल काटे
हम देखें दिन की बाट,,
बाहर सोयें मच्छर काटे
कितनी दुर्गम है ये रात
हम देखें दिन की बाट।।

जब यह कविता दादा को बताई की कविता अपने आप मे पूर्ण है किंतु जब तक तुम पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते तब तक जीवन की कविता सम्पूर्ण नहीं होगी। दादा जानते थे कि श्रमजीवी साहित्यकारों की तब क्या हालत थी, बात वास्तविकता से जुड़ी थी अतः मैं ने अपने कविता के बीज को मन के एक कोने में संभाल कर रख दिया।
बरसों तक वो बीज मन के उस सुप्त कोने में दबा रहा और जब उसे उचित नमी मिली तो फूट कर लहलहाने लगा। वर्ष 1986 में मेरी पहली रचना “घर” सुप्रसिद्ध “साप्ताहिक हिंदुस्तान” के महादेवी वर्मा श्रद्धांजलि विशेषांक में प्रवेश स्तम्भ में प्रकाशित हुई। और दादा के प्रयास से ही 1987 में पहली काव्य पुस्तक “तुम्हारे लिये” प्रकाशित हुई।

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