जिंदगी में धीरे चलो तो संभव है, मंजिल पर पहुंच जाओगे

आराम से। यह शब्‍द इस समय जितने संकट में इस समय हैं, उतने कभी नहीं थे। कोई भी धीरे चलने को तैयार नहीं। ऐसा लगता है, हमने जिंदगी को गति का पर्यायवाची बना लिया है। हर चीज़ इतनी तेज़ कर दी है कि अब तेज़ी हमें उबाऊ लगने लगी है। हम तेजी से ऊबने लगे हैं। कब तक जल्‍दी मिलने वाले पिज्‍जा से पेट भरा जाएगा। कभी तो उस स्‍वाद की ओर जाना पड़ेगा, जो धीमे-धीमे पकता है।

जो जितनी धीमी आंच पर पकता है, उसका स्‍वाद उतना ही ठोस, गहरा होता है। ब‍िना पके न तो भोजन में स्‍वाद होता है, न ही जिंदगी में! हमने जिंदगी को जब से धीमी आंच से उतार कर तेज़ आंच में पकाना शुरू किया, हमारे चेतन और अवचेतन मन के संकट वहीं से आरंभ हुए हैं। इतनी तेज़ गति से कुछ हासिल नहीं होगा। हम बचपन से सुनते आए हैं कि दुर्घटना से देर भली। लेकिन हम इस देर भली वाली को एकदम से गायब कर गए।

इसके सबसे अधिक प्रभाव हमारी जिंदगी में बढ़े असंतोष, चिड़चिड़ेपन, नींद की कमी, स्‍वभाव में बढ़ी कठोरता, बढ़ते गुस्‍से के रूप में सामने आ रहे हैं। ध्‍यान से देखिएगा तो आसानी से समझ जाएंगे कि जिंदगी में इस तेज़ी से उतना सुख नहीं आया है, जितनी मन में असंतोष, चिंता आ गई। अब क्‍या करें। इसका समाधान क्‍या है। इसे दो छोटी-छोटी कहानियों से समझते हैं।

पहली कहानी, गांव के उस छोर पर जहां से जंगल शुरू होता था, एक बुजुर्ग महात्‍मा रहते थे। शाम ढलने को थी। उसी समय एक नौजवान युवक ने उनसे कहा, रात होने वाली है। मुझे उस पार बसे गांव जाना है। मैं कब तक वहां पहुंच पाऊंगा। मेरा वहां पहुंचना जरूरी है।

महात्‍मा जी ने उसकी बात धैर्य से सुनने के बाद कहा- अगर तुम धीरे-धीरे चले तो संभव है, रात होने से पहले पहुंच जाओ। रास्‍ता मुश्किल है, लेकिन दूरी ज्‍यादा नहीं है। जब हम जल्‍दबाजी में होते हैं, तो किसी को सुनना पसंद नहीं करते। ऐसे समय अक्‍सर हमारा धैर्य साथ छोड़ने लगता है।

उस युवा के साथ भी यही हुआ। उसने सोचा महात्‍मा बुजुर्ग हो गए हैं। कभी धीरे चलने से भी कोई जल्‍दी पहुंचा है। वह तेजी से जंगल में दाखिल हुआ, उसके बाद तेज़ कदमों से चलने लगा। रास्‍ता पथरीला था। झाड़ियों से भरा हुआ। इसलिए, कुछ दूर चलने के बाद ही वह फि‍सल गया। गिर गया। उसे चोट लग गई। अब आगे चलना मुश्किल हो गया।

तभी पीछे से एक युवा वहां पहुंचा। वह उसे देखकर हंसा। उसने कहा, लगता है, बाबा की बात भूल गए। इस रास्‍ते पर धीमे चलने पर ही पहुंचना संभव है। इस रास्‍ते तेजी से चलकर कोई नहीं पहुंचा है। हमारी जिंदगी एक पथरीला रास्‍ता है। इस पर धीमे चलने से ही सफर सुहाना, शानदार और सार्थक होगा।हमारी दूसरी कहानी, आपने कई बार सुनी होगी। वही कछुए और खरगोश वाली। हां, उसे नए अर्थ में समझने की जरूरत है। खरगोश होने का अर्थ यह नहीं कि असमय आराम करने लग जाएं। कछुए से वही पुराना सबक- चलते रहिए। लेकिन इसके साथ ही यह भी कि चुनौती स्‍वीकार करने से पहले देखना होगा कि यह मेरे स्‍वभाव से कितनी मिलती है। हमसे खुद को साबित करने के मायने यह नहीं होने चाहिए कि पूरी जिंदगी अपनी योग्‍यता खर्च करने में ही चली जाए।
धीमे चलने का अर्थ रुकना, थमना, ठहरना नहीं है। हाथ पर हाथ धरे रहना नहीं है। आलस्‍य नहीं है। बल्कि अपने काम को संपूर्णता, धैर्य और अपने स्‍वभाव के साथ रमते हुए करना है।

धीमे चलने का अर्थ गति से अधिक सजगता और भीतर के सौंदर्य से है। उस सुख से है, जो हमारे भीतर है। उस संवाद से है, जो गति के फेर में कहीं पीछे छूट जाता है।
हमने जिंदगी को जब से धीमी आंच से उतार कर तेज़ आंच में पकाना शुरू किया, हमारे चेतन और अवचेतन मन के संकट वहीं से आरंभ हुए हैं। इतनी तेज़ गति से कुछ हासिल नहीं होगा।

राधेश्याम रघुवंशी

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