फेसबुकिया वैराग्य

-संदीप सृजन

लॉकडाउन में फेसबुक लाइव का दौर जमकर चला। हमारे चन्द्रप्रकाश चंचल उर्फ चंदू भैया ने भी दिन के पन्द्रह घंटे किसी न किसी कवि या कवयित्री का लाइव देखा और प्रति मिनट किसी न किसी लाइन को कोड करके वाह और लाजवाब लिखा तो, कभी तालियों वाली इमोजी लगा कर अपने भी ऑनलाइन होने का एहसास करवाया। इसी दौरान एक दिन चंदू भैया ने भी खुद को लाइव प्रकट करने का मन बनाया चार दिन पहले पोते से एक बढ़िया सा पोस्टर बनवाया और फेसबुक पर अपनी वाल पर तो चेपा ही चेपा और कवियों -कवयित्रियों को पर्सनल मैसेंजर में भी भेजा, ताकि वे भी उनको सुने।

तय समय से 10 मिनट पहले ही पोते की मदद से चंदू भैया सिल्क के कुरते और जॉकेट में फेसबुक पर प्रकट हुए और कहने लगे- ‘मित्रों ! आप मुझे देख और सुन पा रहे हो तो कुछ लिखकर बताए, ताकि मुझे आपकी उपस्थिती का एहसास हो।‘ पर दिए गये समय के 15 मिनट बाद तक भी केवल 4-5 लोगों ने देखा वो भी 4-5 सेंकड के लिए और वे भी आगे बढ़ गये। एक घंटे तक गला फाड़ कर 6 गीत और 20 मुक्तक चंदू भैया ने पढ़े । पर सुनने वाले सब नदारत थे। जिनने लाइव पर सरसरी नज़र डाली उनमें वो कोई नहीं था, जिनके लाइव आने पर चंदू भैया ने कमेंट बाक्स में वाह-वाह लिखा था। एक घंटे के लाइव को अंत तक मुश्किल से 10 लोगों ने देखा वो भी अंजाने में। फिर भी चंदू भैया ने अपनी सोच को सकारात्मक रखा और सोचा घर के काम काज सभी को होते है। लगता है मैने समय गलत चुना और अपने मन को दिलासा दिया।

कुछ दिनों बाद अनलॉक के पहले सप्ताह में एक बार फिर लाइव होने का मन चंदू भैया ने बनाया और पहले से ज्यादा फेसबुक मित्रों और मित्राणियों को मैंसेंजर में संदेश भेजे। कुछेक नये छोरों ने जरुर शुभकामना दे दी। लेकिन जिनके लिए वे लाइव आ रहे थे वे सब मौन थे। पर मन को हतोत्साही नहीं होने दिया। हेयर डाई करके नये कुर्ता पहन कर मोबाइल कैमरे में फिर से पोते के सहयोग से इस बार शाम को 4 बजे लाइव हुए । ताकि हर कोई फ्री रहे और उनको देखने आ सके। मगर इस बार तो और भी ज्यादा बुरी गत हो गई। कोई चिडिया तो क्या कोई उल्लू भी नहीं आया। एक घंटा मन मार कर कैसे ग़ज़लें पढ़ी, ये तो चंदू भैया का दिल ही जानता है। लाइव के बाद उनके दिलों दिमाग में बस यही लाइने गूंज रही थी। उनकी गली से जब मेरा जनाजा निकला। वो नहीं निकले जिनके लिए मेरा जनाजा निकला।

दो दिन तक चंदू भैया ऐसे गुमसुम रहे जैसे उन का कोई भारी नुकसान गया हो। पड़ोस वाली भाभी ने आकर हाल-चाल पुछे तब कुछ ठीक हुए । पर ये महसूस होने लगा कि फेसबुक की दुनिया केवल आभासी है और दिखावटी है । सही दुनिया तो अपने पड़ोसी है, और पड़ोसी की धर्मपत्नि है जो रोज कुशलक्षेम तो पुछती है। अब उन्होनें मन बना लिया की वे फेसबुक से विदाई ले लेंगे । और उन्होने एक संदेश तैयार कर अपनी फेसबुक वॉल पर चेप दिया।

विशुद्ध साहित्यिक भाषा और क्लिष्ठ शब्दों में चंदू भैया ने जो लिखा उसे बहुत कम मित्र-मित्राणिया समझ पाए, पर इतना समझ गये कि चंचल जी फेसबुक से रिज़ाइन कर रहे है । कुछ मनचले युवा मित्र ने संदेश डालने के पहले ही मिनट के तीसवे सेंकड़ में बधाई और शुभकामना दे डाली। कुछ ने बड़े लटके मुंह वाली इमोजी चेप दी,तो 20-25 मैसेज के बाद एक सज्जन में लिखा क्यों-क्या हो गया, क्या किसी से विवाद हो गया, ये लिख कर बड़ा सा प्रश्नवाचक लगा दिया। 8 घंटे बाद एक कवयित्रि ने वही प्रश्न दोहराया तो चंदू भैया की वैराग्य तंद्रा टूटी और जवाब लिखा ऐसे ही मन भर गया। और वे उस कवयित्री के पुनर्प्रश्न के इंतजार में बार-बार फेसबुक टटोलने लगे। पर कोई प्रश्न नहीं आया। किसी और ने भी प्रश्न किया हो इस इंतजार में रात में जब भी नींद खुली फेसबुक नोटिफिकेशन देखते रहे।

अल सुबह एक भुक्तभोगी कवि ने ईमानदारी से कमेंट किया- ‘चंचल जी ये आभासी दुनिया है। किसी बात के लिए बुरा मान कर प्रस्थान भी कर गये तो आपको फूफाजी की तरह मनाने कोई नहीं आने वाला। आपके होने न होने से फेसबुक को और आपके मित्रों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। फर्क आपको जरुर पड़ेगा। आपकी सेहत पर इसका असर दिखाई देगा। जो तुकबंदिया आप अपनी वाल पर चेपते और कविता बताकर अपनी भड़ास निकाल लेते थे। वे तुकबंदिया आपके मन को बेचैन करेंगी। आपके डुअल कैमरे वाला मोबाइल व्यर्थ हो जाएगा क्योंकि उससे ली गई सेल्फियां प्रदर्शित होने से तरस जाएंगी। और जिन चेहरे अपलक निहार कर आप कविता रचते थे वे दिखना बंद हो जाएंगे। विदा होने से पहले कृपया एक बार और सोच ले। मैं इस अनुभव से गुजर चुका हूँ। इस कमेंट को पढ़ कर चंदू भैया की फेसबुक मुर्छा अचानक गायब हो गई। फेसबुक से जुड़ी वे सारी बातें याद आने लगी जिनकी वजह उनके जीवन में बहार आई और उनका जीवन गुलजार था। बगैर देर किए उन्होनें कमेंट करने वाले कवि को धन्यवाद दिया और तुरंत फेसबुक पर नीरज जी की कविता कुछ सपनों के मर जाने से जीवन मरा नहीं करता चेप कर अपने फेसबुकिया वैराग्य को भूला दिया।


संपादक-शाश्वत सृजन
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