मन के बोझ को संभालिए

राधेश्याम रघुवंशी

एक-दूसरे से बात किए हुए अब उतना वक्त बीत जाता है, जिसे हम ‘जमाना’ कह सकते हैं। अपनी जिंदगी को हम इतना अव्यवस्थित कर बैठे हैं कि उनके लिए ही समय नहीं है, जिन्हें हम सबसे अधिक प्रेम करते हैं। इसे पढ़ते हुए एक पल को अपने भीतर की ओर लौटिए। पिछली बार कब आराम से, सुकून से अपना सुख, दुख, सारी बातें उनसे साझा की गई थीं, जिनसे गहरा प्रेम है। हम व्यस्त तो खूब रहते हैं, लेकिन अक्सर भूल जाते हैंं कि अपने दिमाग में उन चीजों को इकट्ठा किए जा रहे हैं, जिनसे केवल कचरा बनता है।

कुछ दिन पहले एक मित्र/पूर्व सहकर्मी ने मुझसे बात करने के लिए थोड़ा समय चाहा। मैंने तुरंत हामी भरते हुए कहा, मिलते हैं। लेकिन एक बार तय कर लीजिए कि हमें क्या बात करनी है। उन्होंने कहा, एकदम ठीक है। हम मिले तो उन्होंने सिलसिलेवार तरीके से अपनी बात कही।

वह गहरी निराशा से गुजर रहे हैं। मैंने उनसे कहा, हम कुछ वर्षों से एक-दूसरे से परिचित हैं। उसके बाद भी उन्होंने इतना लंबा समय क्यों लिया। मित्र ने कहा, मैं अपना दर्द साझा करने में सहज नहीं हूं।

मैंने उनसे कहा, क्या उन्होंने अपने परिवार में इतने दिनों से दबाया हुआ दर्द किसी से साझा किया है। उन्होंने नहीं में उत्तर देते हुए कहा, मेरे लिए किसी से कुछ भी साझा करना आसान नहीं है। मैं घर में सबसे बड़ा हूं। मेरे ऊपर सबसे अधिक जिम्मेदारी है। इसलिए मैंं किसी को भी परेशान नहीं करना चाहता।

मैंने कहा, अगर आपके ऊपर इतनी अधिक जिम्मेदारियां हैं। दायित्व हैं तो आपका मानसिक रूप से स्वस्थ रहना सबसे अधिक जरूरी है। तनाव में रहने से तो चीजें ठीक नहीं होंगी। परिवार छोटा-बड़ा जैसा भी है, जरूरी है कि दर्द सबके बीच बांटा जाए। ऐसी कोई भी चीज़ जो दिमाग मेंं अटकी है, बहुत दिन तक वहां ठहरी रहेगी तो सड़ जाएगी। खराब हो जाएगी। कितनी भी मूल्यवान चीज क्यों ना हो, जब वह खराब हो जाती है तो उसे घर से बाहर करना ही होता है। यह बात ठीक ऐसी ही हमारे मन/दिमाग पर भी लागू होती है।
साझा नहीं करने से, मन में चीजों को दबाए रखने से केवल कचरा इकट्ठा होता है। कचरा कितनी भी शानदार चीजों का क्यों ना हो, वह हमारे काम नहीं आता। ठीक ऐसे ही अपने दिमाग को कितनी ही बड़ी-बड़ी चिंताओं में घेरे रहेंगे। नकारात्मकता से भरे रहेंगे। उससे दिमाग की सेहत पर उल्टा असर ही पड़ेगा।चीजों को टालना नहीं है। विचार को अटकाना नहीं है। जिस किसी की बात मन को बुरी लगी है, जरूरी है, उसे साफ किया जाए।
चीजों को इकट्ठा नहीं करना है। कुछ समय पहले मैंने अपने लिए यही नियम बनाया। घर-परिवार, ऑफिस हर जगह मैंने यह नियम लागू किया। अगर मेरी बात से किसी को ठेस पहुंची है। तो मैंने उससे माफी मांगने में देर नहीं की है। हां अगर ऐसा करने के बाद भी वह उसी जगह अटका रहा तो मुझे उससे अपने मन को आगे ले जाना है।जिंदगी बड़ी है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम हर चीज़ पर अटके रहें। मन की बासी चीजें उसकी सेहत के लिए भली नहीं हैं। तनाव, दुख साझा नहीं करने से मन में केवल कचरा जमता है। कचरा न तो घर में रखा जाता है, न ही मन में!
जमी हुई चीजें न तो नदी के लिए अच्छी होती हैं। न घर के लिए और न ही जिंदगी के लिए। जिंदगी बहते रहने का नाम है। हम ‘जीवन संवाद’ के सत्रों में सबसे अधिक जोर इसी बात पर देते हैं। मन को निरंतर नदी जैसा बनाइए। बांध जैसा नहीं। बांध के बहुत से फायदे हो सकते हैं, लेकिन वह नदी तो नहीं है।
हमें अपनी जिंदगी को नदी की तरह बहने देना है। थोड़ा बैठकर सोचिए, आपने कैसे-कैसे बांध मन में बना लिए हैं। जो जीवन के आनंद और प्रसन्नता को जगह-जगह रोक देते हैं। इसलिए किसी भी तरह का तनाव क्यों न हो। उसे साझा करने से कभी पीछे मत हटिए। आप जैसे शरीर के बोझ की चिंता करते हैं, वैसे ही मन के बोझ को संभालिए। इससे, जिंदगी बहुत आसान हो जाएगी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *