पैदल चलने वाले लोग

हरीश दुबे

ऐ चमकीली सड़क कहां है ?
ऊंचे और निराले लोग
आखिर तेरे काम आएं हैं
पैदल चलने वाले लोग

ये पगडंडी के जाये हैं
पिघले डामर को क्या समझे
दस-दस कोस चले इक दिन में
मील के पत्थर को क्या समझे

तूने तो बस इन्हें हिकारत
और उपेक्षा से देखा है
इनके पास मगर तेरी पैदाइश
का कच्चा लेखा है

धूल सने नंगे पैरों ने
नाप दी है तेरी मगरुरी
कहाँ क़ीमती वाहन तेरे
चबा रहे मखनी – तंदुरी

सिर पर रखी पोटली भारी
मासूमों के अथक हौसले
फिर न दोहराया जाएगा
एक बार यह दृश्य देख ले

श्रम की क़ीमत कब जानी है
ओहदों और सियासत ने
सफ़र धूप का सौंप दिया है
पक्की होते ही छत ने

हम समझे इनाम मिलेगा
लेकिन सबने दग़ा किया
मीलों चले थके पांवों को
नींद में आकर काट दिया।

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