– श्रुति कुशवाह
जवानी के ब्याह को प्रेम समझा
उम्रदराज़ प्रेम को अपराध
जबकि ब्याह और प्रेम को
ठीक ठीक साधना
इसी उम्र में संभव था
जमा करना था बैंक और घर में
जितनी एफडी उतना समय
किसी की बीस साला शिकायतें दूर करनी थी
किसी की हालिया तल्ख़ी
बच्चों को बताना था
माता-पिता भी उतने ही इंसान होते हैं
गलतियां उनसे भी हो जाया करती है
यही खेलने खाने की असल उम्र है
लेकिन कुछ परहेज़ के साथ
ये उम्र दिलों से खेलने की नहीं
ज़्यादातर दिल कमज़ोर हो चुके होते हैं
ये आँखें फेरने की नहीं
आँखें मिलाने की उम्र है
जो करना है अब करना है
इस उम्र में कल नहीं आता
इस उम्र का कल आशंकाओं से घिरा है
इस उम्र तक समझ जाना चाहिये
बहुत शुचितावादी नहीं होता जीवन
कुछ गोपन इच्छाएं होती हैं
कुछ ज़ाहिर चूक
इस उम्र तक आते आते
मैल छंट जाना चाहिये
अविश्वास छूट जाना चाहिये
अपराधबोध धुल जाने चाहिये
ग्लानि घुल जानी चाहिये
बहुत से बंधनों के बीच
खुद को मुक्त करते रहना ज़रूरी
बहुत ज़रूरी है प्रेम को
प्रेम से स्वीकारना
स्वीकार सबसे बड़ा मोक्ष है
बुढ़ापे का पहाड़ा शुरू करते ही
बाकी सारा गणित भूल जाना चाहिये
हम जो न जी पाए ढंग का बचपन
कायदे की जवानी
कम से कम बुढ़ापे तक तो तरतीब से पहुँचे
सीखने को अब भी क्या देर हुई है
आइये एक खुशहाल बुढ़ापा जीना सीखते हैं