निमाड़ी लोक नाट्य परंपराः उद्भव एवं विकास

जीवन को एक नाटक की संज्ञाा दी गई है हमारे आस-पास जो घटित हो रहा है उसके रिक्रिएशन को पूरे विश्व में रंगमंच माना जाता है। निमाड़ी लोकनाट्य लोक की सबसे सशक्त विधा है जो जीवन जगत की वास्तविकता को उजागर करते हुए उसे स्वप्नलोक की यात्रा की ओर उन्मुख करती है। लोकनाटयîं का जन्म कब हुआ यह तो निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता लेकिन लगता है कि आदिकाल के आदिमानव का मन जब वनों में रहते हुए ऊब गया होगा तो वह बंदर और भालू को नचाकर अपना मनोरंजन करने लगे होंगे। नट यानी कि नाचना या अभिनय करना। शिक्षाविद जगदीश चंद्र माथुर के शब्दों में कहें तो लोकरंगमंच सामाजिक उदेेश्यों के माध्यम से विशेष रूप में ग्रामीण जनता का दैनिक जीवन में एक अभिन्न अंग रहा है।
निमाड़ी लोक नाटयî पर हम विस्तृत चर्चा करें उसके पूर्व यहां की भौगोलिक स्थिति और इन लोकनाटयîं को सम्पूर्ण बनाने वाली निमाड़ी बोली पर चर्चा करना आवश्यक हो जाता है।
भारत के मानचित्र में विंध्य और सतपुड़ा के बीच जो भूभाग बसा है वह निमाड़ के नाम से प्रसिद्ध है। शासन व्यवस्था की दृष्टि से यह दो भागों में विभाजित रहा है, एक पूर्वी निमाड़ और दूसरा पश्चिमी निमाड़। रिती रिवाज, रहन-सहन, आबोहवा, भावभाषा और संस्कृति की दृष्टि से दोनों एक और अभिन्न है। मध्य प्रदेश के खंडवा, खरगोन, बुरहानपुर, बड़वानी जिले निमाड़ की सीमाओं के अंतर्गत बंधे हुए हैं। यहां नीम के वृक्ष बाहुल्य मैं है। सामान्य भाषा में इसे नीम की आड़ (ओट) में होने से निमाड़ परिभाषित किया गया है।
हालांकि साहित्य मनीषियों ने इसे अलग-अलग रूप में परिभाषित किया है। निमाड़ी बोली भारत के नक्शे में जिस स्थान पर बोली जाती है वह देश का ह्रदय स्थल कहलाता है।आज निमाड़ी का महत्व क्षेत्र विशेष में ना होकर संपूर्ण देश में है। निमाड़ के उत्तर में मालवी, पश्चिम में गुजराती, दक्षिण में खानदेशी तथा पूर्व में भुआणी इसकी सीमावर्ती भाषाएं रही है। शब्दों का आदान-प्रदान किसी भी जीवित भाषा का लक्षण होता है, इसी दृष्टि से जैसा कि सब भाषाओं के साथ होता है निमाड़ी पर भी उसकी सीमावर्ती भाषाओं का प्रभाव रहा है। अध्ययन के अनुसार 1971 में निमाड़ी बोलने वालों की संख्या लगभग 30 लाख हो गई थी। निमाड़ी साहित्यकार मणि मोहन चौरे के अनुसार 25हजार वर्ग किलोमीटर में फैले निमाड़ क्षेत्र में लगभग 31 लाख निमाड़ी भाषी लोग निवास करते हैं। जिसमें खंडवा और खरगोन जिले आदर्श निमाड़ी केंद्र कहे जाते हैं। डाक्टर प्रेम भारती के अनुसार निमाड़ी बोली ने आज धीरे-धीरे एक लोक भाषा का रूप ले लिया है, उसमें साहित्य रचनाएं प्रकाशित होने लगी हैं वहीं विश्वविद्यालयों में एक विषय के रूप में उसे सम्मिलित भी किया जा रहा है निमाड़ के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो यहां पर्व या लगने वाले मेलों के समय बैल गाड़ियों पर धोती- कुर्ता के साथ सिर पर लाल पगड़ी पहने पुरुष और घेरदार घाघरा- चुनरी या लुगड़ा पहने महिलाओं को निमाड़ी बोली में गीत गाते हुए देखा जा सकता है। घर में तीज त्यौहार, बच्चे का जन्म हो या निकट संबंधी का विवाह, स्वाभाविक रूप से स्त्रियों के हाथ की तालियां अनायास ही बजने लगती हैं और पैर थिरकने लगते हैं। फिर सिलसिला आरंभ होता है गीत- संगीत एवं नृत्य का, इस अवसर पर वाद्य के रूप में सर्वथा हर घर में उपलब्ध थाली का उपयोग होता है। लोकगीतों के बाद वाद्यों का जीवन में द्वितीय स्थान माना गया है। यहां जब व्यक्ति आनंदित होता है तब वह परंपरागत लोक वाद्यों से हटकर किसी भी वस्तु को वाद्य का स्वरूप दे देता है। मजदूर यहां तगारी की तान पर गीत गाता है साथ ही मुंह से सीटी भी बजाता हैं। वहीं वर्षा के मौसम में छोटे बच्चों को आम की गुठली को घीसकर उसमें फूंक मारकर बंसी बजाते हुए देखा जा सकता है।।
तात्पर्य यह है कि गीत- संगीत यहां जन-जन में बसा है, और यही गीत संगीत, नृत्य जब कथानक और अभिनय के साथ गांव की चौपालों कस्बों एवं नगरों के मंच पर प्रस्तुत होता है, तब यही प्रस्तुतीकरण निमाड़ के लोकनाटयî का स्वरूप बन जाता है। हिंदी और निमाड़ी के विद्वान साहित्यकार डा श्राीराम परिहार ने अपनी पुस्तक निमाड़ी साहित्य का इतिहास में उल्लेख किया है- जहां तक निमाड़ी साहित्य खासकर गीत और नाटय प्रस्तुति के आयामों का सवाल है खोज करने पर इसमें व्यापक क्षेत्र सामने आते हैं। गायन की शैली में लय, टेक, चौक,आलाप, राग, आरोह अवरोह तीव्र मध्यम एवं समापन आते हैं। उसी प्रकार शारीरिक भंगीमाओ में बैठकर, खड़े होकर, गोलाकार, एकल नृत्य, समूह नृत्य, श्राम करते हुए, अकेले चलते हुए, समूह में चलते हुए, इनकी प्रस्तुतियां होती हैं। वही लोक वाद्यों में मृदंग, ढोलक, घेरा, ताशा, ढोल, नगाड़ा, खंजरी, झांज, घुंगरू, लोहे की तिकोन कड़ी, और छोटी डंडी, परात, डंडा, चिमटा, सारंगी, तुरही, पखावज, डमरु और हारमोनियम की संगत होती है।
निमाड़ी लोक नाटयî के अभिन्न अंग हैं – लोक गीत, लोक कथा, एवं लोकोक्तियां हैं, इसे ऐसा भी कहा जा सकता है कि निमाड़ी लोक साहित्य को समझने की दृष्टि से इसे इन्हीं चार भागों में विभाजित किया गया है, जिसमें लोकोक्तियों के अंतर्गत क्षेत्र में खेती से संबंधित नीति तथा सामाजिक संदर्भ वाली कहावतें एवं पहेलियां प्रयोग में लाई जाती हैं वहीं लोकगीत को निमाड़ी लोक का अमृत कंठी नाग भी कहा जाता है। निमाड़ी लोक साहित्य में सबसे अधिक संख्या लोकगीतों की है। पद्म श्राी रामनारायण उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘लोक साहित्य समग्र’ में लिखा है कि- निमाड़ में एक किसान जब खेत में हल चलाता है तो गीत के साथ, एक मजदूर जब सड़क पर मिट्टी को कूटता है तो गीत के साथ, स्त्रियां जब घटटी यानी की चक्की के द्वारा अनाज पीसती हैं तो गीत के साथ और यदि दही बिलौती हैं तो उसके साथ भी गीत की कुछ कड़ियां बिलौती आई है। ऐसा प्रतीत होता है कि समूचा जीवन अपने आप में सुंदर संगीत है।
यहां के लोक नायकों में टंटया मामा बहुत अधिक प्रचलित हुए हैं। इनके अतिरिक्त भीमा नायक, खाजिया नायक को भी इस क्षेत्र में आदिवासी क्रांतिकारी के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध जल जंगल जमीन एवं यहां की संस्कृति को बचाने हेतु क्रांति का बिगुल बजाया। इन्ही लोक नायकों के कथानक गीत संगीत के साथ संजोकर दृश्यों को बांधने का प्रयास किया जाता है।
निमाड़ की संस्कृति के प्रतीक लोक नाटय- रामलीला, रासमंडल हो या फिर स्वांग या गम्मत, ये सब निमाड़ में आज भी प्रासंगिक रूप में रूप में विद्यमान हैं यद्यपि यह कहे कि गांव की चौपालों, कस्बों एवं नगरों के मंच से निकल कर सोशल साइट्स एवं यूटयूब पर इनकी प्रस्तूतियों का विस्तार हो रहा है।

लेखक रंगकर्मी होने के साथ,
रंग संस्कृति के संपादक है
मो.: 9425004536

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