परिवर्तन की दिशा में रंगकर्मियों की पहल…

यतीन्द्र अत्रे

इन दिनों रंग कर्मियों के बीच रंग प्रदर्शन निशुल्क करने की अपेक्षा सहयोग राशि अथवा टिकट के साथ करने को लेकर चर्चा आम है। इसे लेकर वे विभिन्न माध्यमों से रंगप्रेमियों, रसिको को जागरूक करने का प्रयास कर रहे हैं। पिछले गुरुवार को शहीद भवन में स्मरण हबीब 20 वें रंग आलाप नाट्य महोत्सव के समापन अवसर पर रंग अभिनेताओं की उपस्थिति में जब दर्शक दीर्घा से भी इस विषय पर भरपूर समर्थन मिलता दिखाई दिया, तब से यह भरोसा होने लगा कि इस दिशा में सकारात्मक परिणाम मिल सकते हैं। समारोह की मुख्य अतिथि एवं सेवानिवृत पुलिस आयुक्त अनुराधा शंकर ने जब रंग प्रेमियों से टिकट लेकर रंग प्रदर्शन देखने का सुझाव दिया तो उस समय दर्शक दीर्घा से भी उन्हें समर्थन मिलता दिखाई दिया। कुछ उत्साही रंगप्रेमियों ने तो मंच पर आकर अपने विचार रखें। प्रदर्शित नाटक लाला हरदौल को भोपाल के अतिरिक्त गांव-कस्बों में भी मंचन करने के लिए अपनी बात रखी, वहीं इन्होंने सुझाव दिया की टिकट लेकर जगह को सुनिश्चित किया जा सकता है साथ ही ऐसे दर्शकों की संख्या बढ़ेगी जो रंगमंच के प्रति समझ रखते हों। उल्लेखनीय है कि 8 से 13 जून तक हम थिएटर संस्था द्वारा आयोजित पांच दिवसीय स्मरण हबीब ‘रंग आलाप नाट्य महोत्सव’ में मंचित नाटकों को 50 से लेकर 200रू. तक सहयोग राशि के साथ दर्शकों ने देखा, जिसमें प्रथम दिवस स्वर्गीय हबीब तनवीर निर्देशित नाटक चरण दास चोर के साथ अग्नि बरखा, ययाति, अंधा युग एवं अंतिम दिवस लाला हरदौल के मंचन तक दर्शकों की कमी नहीं दिखाई दी।
पूर्व में भी समाचार पत्रों, मीडिया चैनल एवं सोशल साइट्स के माध्यम से वरिष्ठ रंग कर्मियों द्वारा इस विषय पर जोर दिया जाता रहा है। कुछ दिनों पहले ही रवींद्र भवन में आयोजित प्रसिद्ध नाटकों चौथी सिगरेट, चरणदास चोर, पापकॉर्न के प्रदर्शन हुए जिसमें भरपूर प्रतिसाद मिला। इन नाट्य महोत्सव में दर्शकों का जो उत्साह देखा गया उसका समर्थन करते हुए में भी इस चर्चा को आगे बढ़ाता हूं ताकि निकट भविष्य में कहीं यह जागरूकता धूमिल ना हो जाए। इस बारे में कुछ रंगकर्मियों का कहना है कि पहले भी भोपाल में  भारत भवन, रवींद्र भवन हो या शहीद भवन, शहर में टिकट लेकर रंगमंच देखने की परंपरा रही है।  पिछले कुछ वर्षों से दर्शकों की संख्या बढ़ाने की चाहत से इन समारोह में स्वतः ही परिवर्तन दिखाई देने लगा।
 इतिहास में झांक कर देखें तो महाराजा भोज के संरक्षण में इस नगरी में कालिदास के नाटकों के साथ रंगमंच बड़ा सक्रिय रहा है। फिर ब.व. कारंत, हबीब तनवीर, विभा मिश्रा जैसे नाम अवतरित हुए जिन्होंने भोपाल के रंगमंच को देश-विदेश में पहचान दिलाई। शहर में रंग संस्थाओं की संख्या बढ़ी और गतिविधियां जोर पकड़ने लगी। रंगमंच में नित् नए प्रयोग होने लगे। वर्तमान में राजीव वर्मा, आलोक चटर्जी, बालेंद्र सिंह और रामचंद्र ऐसे नाम है जिनके द्वारा निर्देशित नाटकों को देखने हेतु दर्शकों का एक बड़ा वर्ग प्रतीक्षा करता है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि नित नए प्रयोगों से रंगकला तो समृद्ध हुई लेकिन रंग संस्थाएं रंगकमी समृद्ध नहीं हो पाए। संभवतः फिल्म अभिनेताओं जैसे किसी रंगकर्मी के बारे मे यह खबर नही छपी होगी कि फलाँ रंगकर्मी द्वारा करोड़ों रुपये आयकर चुकाया गया। स्थिति यह है कि शहर की 80% संस्थाएं शासकीय अनुदान या स्वयं के प्रयासों से या अन्य माध्यमों के द्वारा सहयोग लेकर नाटकों के मंचन को परिणाम तक पहुंचा रही है। किसी रंग अभिनेता द्वारा संवाद या प्रशंसनीय अभिनय पर, या जब कभी उसके अभिनय में अपनी छवि निहारते हैं तब दर्शक दीर्घा तालियों की गूंज से अभिनेता, निर्देशक का उत्साहवर्धन करते हुए दिखाई देती है। लेकिन मंचन के पीछे की कहानी या दर्द कभी उजागर नहीं होता है। आमतौर पर किसी एक नाटक को मंच के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचने में 3 से 6 माह का समय लग जाता है। संगीत, प्रकाश नेपथ्य में कार्य कर रहे सहयोगियों के साथ लगभग 20 से 30 कलाकारों का जमावड़ा प्रतिदिन पूर्व अभ्यास के लिए होता है इनमें छुपे खर्च जिसमें स्थान का किराया, प्रतिदिन का चाय-पान सम्मिलित होता है, संस्था या निर्देशक को ही वहन करना होता है। कलाकारों का पारिश्रामिक जिसे सम्मान राशि नाम दिया जाता है, मंचन के उपरांत या फिर अनुदान प्राप्त होने पर निर्भर होता है। कईं बार कलाकारों का रिहर्सल स्थल तक आने-जाने के लिए प्रयुक्त वाहन का ईंधन या किराया भी नहीं निकल पाता है। तो अब चौंकिए नहीं मंच पर नए और अच्छे नाटक देख सकते हैं लेकिन सहयोग राशि के उपरान्त।

मो.: 9425004536

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