*गुरु पूर्णिमा पर्व – गुरुजनों, श्रेष्ठजनों के प्रति
अगाध श्रद्धा का यह पर्व भारतीय सनातन संस्कृति का विशिष्ट पर्व है- योग
गुरु महेश अग्रवाल*
आदर्श
योग आध्यात्मिक केंद्र के योग गुरु महेश अग्रवाल ने बताया कि आषाढ़
पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में भी मनाया जाता है। वेदव्यास जी का
जन्म भी आषाढ़ की पूर्णिमा को हुआ था। इस बार यह पर्व 13 जुलाई बुधवार को
योग केंद्र पर सुबह 6:30 बजे से 8 बजे तक स्वर्ण जयंती पार्क पानी के कुंड
के पास कोलार रोड़, भोज यूनिवर्सिटी के सामने भोपाल में सामूहिक योग साधना
एवं ॐ के उच्चारण के साथ सभी के लिये स्वस्थ एवं मंगलमय जीवन की प्रार्थना
करते हुए मनाया जायेगा ।योग गुरु अग्रवाल ने बताया
कि गुरु पूर्णिमा हमारी आत्मा का जन्म -दिवस है। इस दिन आशीर्वादो ने हम पर
विजय प्राप्त की। इस दिन हमें ईश्वर का साम्राज्य प्राप्त हुआ। गुरु
पूर्णिमा हमें हमारे कर्तव्यों का स्मरण दिलाती है। यह निरीक्षण का दिन है,
जब गुरु शिष्यों से ह्रदय से भेंट करते हैं । फिर आज के दिन से उत्साह
जगायें। बीती बाते भूलें। अपना प्रण याद करें। अपनी जिम्मेदारी पालें।
बुराइयों को छोडें । अच्छाइयों को जोड़ें।
पूर्णिमा
को सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिए बहुत ही शुभ माना जाता है। माना जाता
है कि लगभग 2500 साल पहले इसी दिन भगवान बुद्ध ने सारनाथ में अपने पहले
उपदेश का प्रचार किया था। भगवान श्रीराम भी गुरुद्वार पर जाते थे और माता-
पिता तथा गुरुदेव के चरणों में विनयपूर्वक नमन करते थे। अतः गुरुजनों,
श्रेष्ठजनों के प्रति अगाध श्रद्धा का यह पर्व भारतीय सनातन संस्कृति का
विशिष्ट पर्व है।
गुरुपूर्णिमा
– गुरु और शिष्य का सम्बन्ध पूर्णतया निष्काम व आध्यात्मिक है जो परस्पर
श्रद्धा, समर्पण और उच्च शक्ति पर आधारित है – योग गुरु महेश अग्रवाल*
*सृष्टि
के आरंभ से ही मनुष्य कोशिश में लगा हुआ है कि बाह्य जीवन से निवृत्त होकर
वह अपने अंदर झाँके, आन्तरिक जीवन की गरिमा का अनुभव करे। लेकिन उसे उसकी
विधि मालूम नहीं है। कई बार उसने अंदर जाने का ठीक रास्ता खोजा, लेकिन हर
बार वह असफल हुआ। फलस्वरूप, उसने निश्चय किया कि आन्तरिक चेतना के लिए उचित
मार्गदर्शन की आवश्कता होती है। अतः जिस अनुभवी साधक ने स्वयं अपने मन के
गहरे स्तरों का अन्वेषण कर लिया है, वही दिशा निर्देशक हो सकता है। अतः
रास्ता सिर्फ वही बता सकता है और वह अनुभवी साधक और मार्गदर्शक ही गुरु
होता है। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध मुख्यतः गुरु पर निर्भर रहता है। शिष्य
के विकास का निश्चय तो उसे ही करना होता है। कुछ शिष्य गुरु को मार्गदर्शक
के रूप में देखते हैं, कुछ मित्र भाव से तथा कुछ प्रेरक या भगवान के रूप
में देखते हैं।*