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ऐसी जीवन शैली: तौबा तौबा

ऋषिका खरे

आपको शीर्षक पढ़कर यह तो अवश्य लगा होगा कि अब जीना भी हम जैसे लिखने वालों से खीखना होगा। लोग तो बुढ़ापे तक सीखते है और यदि कोई आपको अच्छी सीख दे रहा है तो सीख लेना चाहिये, वरना अखबार को पलट को रख दो,लेकिन सच तो यह है कि सच्चाई से भाग थोड़े ही पाओगे, बेहतर यही है कि इस आलेख को एक बार पढ़कर देख लीजिये बाकी मर्जी है आपकी, क्यों कि जिन्दगी भी है आपकी, किस तरह जीना है यह आपको तय करना है न कि मुझे। यदि हम भारत वर्ष में 100 व्यक्तियों की जीवनशैली पर शोध और अनुसंधान करेंगे तो पायेंगे कि आज भी हमारे देश का 90 प्रतिशत व्यक्ति यह नहीं जानता कि उसकी जीवन शैली कैसी या किस प्रकार की होनी चाहिये ? देश के हर नागरिक के यह बात जानना जरूरी है कि उसकी जीवनशैली होनी कैसी चाहिये, भोजन कैसा लेना चाहिये, व्यायाम और कसरत का उसके जीवन में क्या महत्व रखता है? न जानने के पीछे का प्रमुख कारण अज्ञाानता, जागरूकता की कमी का होना तो है ही और अक्सर हम पाते है जानने समझने के बाद भी अमल में न लाना यह भी बड़े कारणों मेंसे एक कारण होता है। इस देश को तीन मुख्य अविष्कारों ने न केवल अपना गुलाम बना लिया है बल्कि इसी गुलामी से आज़ादी पाने के लिये कोई संग्राम होगा यह भी नज़र नहीं आने वाला है, जो कुछ करना है हमें स्वयं को करना होगा, वरना गुलाम तो हम हो चुके हैं। ये तीन गुलामी है पहला टेलीविजन, दूसरा है मोबाईल और तीसरा फास्ट फूड। इन तीनों ने भारत को पांचवी शक्तिशाली अर्थव्यवस्था तक पहुंचाने में खासी मदद की होगी, शायद कुछ लोग ऐसा ही मानते होंगे। टेलीविजन की गुलामी तो 1982 से शुरू हो गई थी और जब से इस देश में मोबाईल के क्रांतिकारी युग उद्य हुआ है, तभी से हम इसके गुलाम भी हो गये है जिसके परिणाम स्वरूप हमारे देश में गर्भस्थ पुरूषों की संख्या में तेजी से इज़ाफा हुआ है और ये रूकने का नाम नहीं ले रहा है। अब आप यहीं कहेंगे कि लेखिका मैडम सटियाय गई हैं, जी नहीं मैं बिलकुल नहीं सटियायी। सांच को आंच नहीं, यदि इस बात की पुष्टि करना हो तो केवल एक घण्ट अपने के दरवाजे पर हर आने जाने वाले पुरूषों की तोंद देखना शुरू कर दीजिये फिर देखिये गर्भस्थ धारण करने वाली महिलाओं के समान तोंदू व्यक्तियों की संख्या कितनी दिखने को मिल जाती है। अब आप तो यह भी कह सकते है कि आप, इसमें भला मोबाईल को क्यूं दोष दे रही हैं ? इसके लिये पहले अपने आप को देखना होगा, फिर अपने पापा पर नज़र रखनी होगी और फिर दोस्तों पर, रख कर तो देखिये, आंखे जो खुली रहने के बाद भी बंद रहती है वो तो कम से कम खुल जायेंगी। शुरूआत आपसे ही करते हैं रात को मैसेज की घंटी बजती है तो सबसे पहले उठकर देखते है कहीं कामिनी ने तो कुछ नहीं भेजा ‘‘जानू क्या कर रहे हो’’? और रात में जितनी बार आंख खुलती है आप जरूर एक बार मोबाईल जरूर देखा करते हो, ये आप ही नहीं बल्कि आपके पिताश्री और माताश्री भी यही करती है । पहले व्यक्ति उठता था ब्रश करके अपने माता पिता के साथ बैठकर बतियाता था, वहीं उनके साथ चाय पीते पीते अखबार पढ़ा करता था और ध्यान लगाता या सुबह की सैर पर निकल जाता था और अब उठते ही सबको मोबाईल पर गुड मार्निंग भेजने और रील देखने में व्यस्त हो जाते है । बिस्तर पर पड़े पड़े मोबाईल चलाते चलाते वहीं चाय पी ली, नाश्ता किया और जब नो बज गये तो नहाने चले गये और आये तो अति व्यस्तता के चलते चलते दो अगरबत्ती लगाकर इतिश्री कर ली और धास कर खाना दबाया और जाकर आफिस में कुर्सी पर धमक गये और वहां भी लग गये मोबाईल पर। मोबाईल क्या क्या परोस रहा है यह मुझे बताने की जरूरत नहीं होना चाहिये, उसी का असर है कि हमारे बच्चे सितोलिया, डीप रेस, सायकल का चक्का चलाना, पचगुट्टे खेलना, गुड्डा गुड़िया को सजाना,उनकी शादी करना, उनके कपड़े बनना सब भूल चुके है। इन सबको हमने तिलांजलि ही नहीं दी है बल्कि अपने बचपन को मार दिया है हमने अपने दिमाग को विकसित होने से पहले ही व्यस्यक बना दिया है। यदि आप इसका उदाहरण देखना चाहतेे है तो देखना हर दूसरा बच्चा या तो चश्मा पहने दिखेगा या हर दूसरे बच्चे को किसी न किसी प्रकार न्यूरो डिस आर्डर जैसे, डिप्रेशन, अलजाईमर, परकिंनसन रोग की शिकायतें आम होने लगी हैं।  आप कहेंगे कि मैं तो जबरन मोबाईल के पीछे ही पड़ गई, मोबाईल के काम की चीज भी तो है, तो मैंने कब कहा  कि मोबाईल खराब है, मेरे कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि हमारे द्वारा जिस प्रकार से मोबाईल का प्रयोग किया जाता है वह गलत है उससे नींद न पूरी होना, अवसाद का बने रहना, पेट का बड़ा होते जाना और उम्र से पहले बड़े हो जाना क्या कम खतरनाक नहीं है? चलों मैं आपकी अव्यवस्थित जीवनशैली के दूसरे चरण में आपको लिये ले चलती हॅूं और वह है हमारा खान पान। क्या आप यह बात नहीं जानते है कि पिछले बीस पच्चीस सालों में हमारे खानपान और खाने पीने के तरीको में कितना बदलाव आ गया है ? यदि कभी किसी समय आपको अपने मोबाईल से फुर्सत मिले तो इस बारे में भी जरूर सोचना। कितने ही घर बचे है जहां बच्चों के जन्मदिन पर बनाये जाने वाले गुढ़ के बनाये जाने वाले    गुलगुले बना करते हैं और कितने ही बच्चे को नहाने के बाद मीठा दही खिलाया जाता हैं मंदिर ले जाया करते हैं । ऐसा हर घर में हो रहा हो, मेरा कहना बिलकुल भी ऐसा नहीं है आज भी जिन घरों में बाबा दादी रहते हैं और जिन घरों में आज भी पुराने संस्कार और परम्परायें जीवित है वहां आज भी जन्मदिन हो या कोई शुभ अवसर उस समय गुलगुले, खीर पूड़ी और घी से तर हलुवा खाने को बनाना और खिलाना गौरव का क्षण माना जाता है । मगर आज हम सोशल मीडिया की दुनियां में रह रहे है केक, कोक, पिजा और बरगर के बिना जन्मदिन मनाने के लिये कह भर देना आफत मोल लेने के बराबर हो जाता है और नया चलन तो यह आ गया है कि अपने बच्चे के जन्म दिन के आप घर में बैठकर उसके घर लौटने का इंतजार करते रहते हो और आपका लला और लाली दोस्तों के संग होटल से कब वापस आयेंगे ये तो आज की तारीख में भगवान भी नहीं बता सकता । बच्चा सुबह उठे नहा धोकर अम्मा बापू और बाबा दादी के पैर छूये, मंदिर में दो अगबत्ती लगा दे, यह सब बीते दिनों की बात हो चुकी है आज के दौर में ऐसी बातें करना शोभा नहीं देता । खाने को ही ले लो, आज कल के बच्चे न तो लौकी खाये, न गिलकी खाये और न ही करेला, जिस दिन ये बन जाता है उस दिन डिलेवरी बाय से या पिज्जा, बरगर या बिरयानी मंगा ली जाती है, कब आॅर्डर हो जाता है कब धीरे से नीचे से कमरे तक पहुंच जाता है किसी को खबर तक नहीं लगती । देर रात तक रील बनाने, बतियाते और दोपहर देर तक सोते है । अक्सर घरों में यह देखने को मिलना यह बात आम हो चुकी है कि जब पिता आॅफिस जाते हैं बच्चे सोये हुये रहते है और जब पिता सो जाते हैं तब उसके बच्चे घर आते हैं । संग साथ बैठना, साथ बैठकर खाना खाना सब बंद हो गया है या समझों की होता जा रहा है। आज कल फिटनेस सेंटर का चस्का भी किसी से कम नहीं है बच्चे तो बच्चे, पिता भी पीछे नहीं रहे हैं जहां फिटनेस पर जोर कम और नज़रे मिलाने पेड लोकेशन कहा जाये तो ज्यादा अच्छा होगा। जो बच्चा दस उठकर जिम जा रहा है वह अपने स्वास्थ्य को लेकर कितना जागरूक है इसका अंदाजा तो आप लगा ही चुके होंगे। आज जहां विदेश देश भारत की संस्कृति और यहां के खानपान के अपना रहे हैं वहीं हम अपने रीति रिवाज, संस्कृति, परम्पराओं और खान पान से दूर होकर एक ऐसी दिनचर्या अपना रहे हैं जिनमें हमारा अहित ही होना है । मैं तो समझा ही सकती हॅूं बाकी समझदार तो आप है हीं । अलविदा

सहायक प्राध्यापक

नेशनल ला यूनिवर्सिटी, 

कटक, उड़ीसा

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