विक्रमादित्य सिंह
मुसीबत से पहले ही नज़र उतार लेती थी माँ
गिनती कम ही थी ज्यादा खिला देती थी माँ
आने में देरी हो तो राह ताकती रहती थी माँ
मेरी मुस्कान पर दुख, दर्द भूल जाती थी माँ
वेलेंटाइन डे मालूम नहीं क्या होता था
दुआओँ का निश्चल प्रेम बरसाती थी माँ।
सुबह कुछ मांगों तो
टाल देते थे पिता
शाम को आते वक्त साथ ले आते थे पिता
मेरे मांगने की जीद कभी कम न हुई
मेरी जीद को ही अपनी जीद समझते थे पिता
वेलेंटाइन डे मालूम नहीं क्या होता था
ईश्वर सा निस्वार्थ प्रेम करते थे पिता।
भाई का छाया भी हिम्मत से भर देता था
बहन की राखी भी सारी बलाएं हर लेता था
न रोज डे था, न प्रपोज डे, न गिफ्ट डे
फिर भी रिश्तों में अपनापन था, विश्वास था
वेलेंटाइन डे मालूम नहीं क्या होता था
प्रेम में पवित्रता थी, भाई-बहन का प्रेम था।
सम्पर्क: फ्लैट नं.305, कविता इनक्लेव, पटिया
भुवनेश्वर, ओड़िशा
Leave a Reply