आशीष खरे
न जाने कब से ढूंढ रहा हूँ
माँ के उस आँचल को
जो उनके सर का ताज था
मान और सम्मान के साथ साथ लोक- लाज और मर्यादाओं का परिचायक था,
यही वह आँचल है जिसने मुझे, दुनियां की बुरी नजरों से बचाया था.
पता नहीं कहां चला गया हैं
मुझे छोड़कर,
अब कहाँ से लाऊँ उस आँचल को,
जो फटा हुआ था जगह जगह से , तो जर जर हो चला था कहीं कहीं से ,
जर जर होने के बाद भी उसमें मेरी माँ का प्यार, दुलार और ममत्व समाया था.
ठंड के दिनों में गरमाहट का एहसास कराया जबकि लू के थपेड़े से भी इसी आंचल ने हैं बचाया था .
अरसा बीत गया है अब तो
तरस गया हूँ माँ के आँचल को ओढ़े हुए,
जिसमें मुझे मिलती रहती थी माँ की खुशबु रह रह के .
अस्तित्वहीन हूँ, शक्तिहीन और विचार शून्य हूँ l बिन माँ के आँचल से मैं, मैं नहीं, केवल मांस का लोथड़ा बन कर रह गया हूँ मैं.
कोई तो लाकर दे दे आँचल मेरी माँ का,
मैं तेरा हूँ माँ , यही आँचल तो, मेरी पहचान ही नहीं मेरा गुरूर है.
दूध पीना तो बहाना मात्र था, असल मकसद तो माँ के आँचल में समा जाने का था.
बर्षों बरस बाद अम्मा के बक्से से मिल गया था उनका आंचल
भले ही वो नहीं रहीं, मगर महक अभी भी ज्यों की त्यों बनी हुई थी…छू कर उसे ताजा हो गई बचपन वाली यादें जो माँ के साथ थी गुजारी .
बतौर निशानी इस आँचल को रखूँगा अपनी अंतिम साँस तक.
माँ के साथ होने का भ्रम ही सही……महसूस करता रहूंगा.
कार्यक्रम अधिशासी
दूरदर्शन केंद्र, भुवनेश्वर
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