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गैर नृत्य गणगौर और तीज जैसे त्यौहारों में भी देखा जाता है, जो गरासिया जनजाति के लिए महत्वपूर्ण त्यौहार है

भोपाल। मध्यप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग एवं दक्षिण मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, नागपुर, उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, प्रयागराज और उत्तरप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग के सहयोग से मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय के 12वें वर्षगाँठ के अवसर पर संग्रहालय में 6 से 10 जून तक प्रतिदिन महुआ महोत्सव आयोजित किया जा रहा है, जिसमें मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र राज्यों के नृत्य एवं गोण्ड, भील, बैगा, कोरकू जनजाति के व्यंजन, शिल्प मेला, कठपुतली के खेल का भी संयोजन किया गया है। चौथे दिन समारोह में दोपहर को श्री मुकेश भारती-भोपाल द्वारा कठपुतली प्रदर्शन किया गया। जिसमें उन्होंने कई हास्य एवं जागरूकता के संदेश देते हुए विभिन्न कठपुतलियों के माध्यम से प्रदर्शन किया।

जनजातीय व्यंजन का स्वाद

महोत्सव के अवसर पर संग्रहालय परिसर में बने जनजाति आवासों में आमंत्रित कलाकारों द्वारा उनके पारंपरिक व्यंजनों को भी पहली बार  प्रदर्शित एवं विक्रय किया जा रहा है, जिसमें भील, गोण्ड, बैगा, कोरकू के व्यंजन का स्वाद पर्यटक ले सकेंगे। कलाकारों द्वारा मक्का, ज्वार, बाजरा, रागी, कुटकी, कोदो, पान रोटी, दाल पानिया, अरहर, बांस के करील, बांस की पीहरी, चेच भाजी, राई भाजी एवं अन्य व्यंजन को परोसा जा रहा है।

शिल्प मेला

महोत्सव में करीब 22 शिल्पीयों द्वारा लकड़ी, वस्त्र, भरेवा, गोबर, जनजातीय आभूषण, बांस, मिट्टी, जनजातीय शिल्प, लोह शिल्प, तोरण, दरी-चादर एवं अन्य को प्रदर्शित एवं विक्रय के लिए प्रस्तुत किया गया है।

महोत्सव की संध्या की शुरूआत कलाकारों के स्वागत से की गई। इस दौरान मंच पर निदेशक, जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी डॉ.धर्मेंद्र पारे उपस्थित रहे। महोत्सव के चौथे दिन 09 जून, 2025 को शुरूआत पंजाबी लोक गायन से की गई। पंजाब  से आईं श्री ग्लोरी बाबा एवं साथी  द्वारा पंजाबी पारंपरिक लोक गीतों की प्रस्तुति दी गई। इसके बाद महोत्सव में नृत्य प्रस्तुतियों का संयोजन किया गया। जिसमें वीरनाट्यम नृत्य श्री ए. सतीश- विशाखपटनम, आन्ध्रप्रदेश, कोली नृत्य श्री राजेन्द्र दत्ताराम बैत-रतनगिरि, महाराष्ट्र, गोजरी नृत्य सुश्री शमशाद बेगम एवं साथी-काश्मीर, गरासिया जनजातीय गैर नृत्य श्री मावाराम एवं साथी-राजस्थान, भील जनजातीय भगोरिया नृत्य श्री राहुल भावर एवं साथी-धार, ढेड़िया नृत्य  सुश्री सुप्रिया सिंह, प्रयागराज , उत्तरप्रदेश, बागुरुम्बा नृत्य  श्री बरलुम्बफा नारजारी एवं साथी, असम, ढोलूकुनीता नृत्य श्री बी. तकप्पा-शिमोगा , कर्नाटक  की प्रस्तुति दी गई।

गरासिया जनजातीय गैर नृत्य/ श्री मावाराम एवं साथी-राजस्थान

गरासिया जनजाति में गैर नृत्य  मेलों, त्यौहारों और विशेष अवसरों पर किया जाता है।  यह नृत्य पारंपरिक रूप से पुरुषों द्वारा किया जाता है। पारंपरिक वेशभूषा पहनने के साथ साथ ढोल का प्रयोग करते हुए नृत्य किया जाता है।  गैर नृत्य गणगौर और तीज जैसे त्यौहारों में भी देखा जाता है, जो गरासिया जनजाति के लिए महत्वपूर्ण त्यौहार है। 

वीरनाट्यम नृत्य  श्री ए. सतीश- विशाखपटनमआन्ध्रप्रदेश 

वीरनाट्यम आंध्रप्रदेश का एक प्राचीन धार्मिक नृत्य रूप है, जिसे भगवान वीरभद्र  के सम्मान में किया जाता है। यह नृत्य वीरमुस्ती समुदाय के पुरुषों द्वारा शिव मंदिरों में विशेष रूप से पूर्वी और पश्चिमी गोदावरी, कुरनूल, अनंतपुर और खम्मम जिलों में किया जाता है। “वीर” का अर्थ है बहादुर और “नाट्यम” का अर्थ है नृत्य, इसलिए वीरनाट्यम का अर्थ है “बहादुरों का नृत्य”।  नृत्य वीरनम या युद्ध-ढोल की ताल पर किया जाता है। नृत्य में कई वाद्य यंत्रों की ताल होती है। वीरनाट्यम नृत्य आंध्र प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. यह नृत्य न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह वीरभद्र की वीरता और बहादुरी का भी प्रतीक है. 

कोली नृत्य  श्री राजेन्द्र दत्ताराम बैत-रतनगिरिमहाराष्ट्र   

कोली नृत्य महाराष्ट्र का लोकप्रिय लोक नृत्य है, जो कोली समुदाय द्वारा किया जाता है। यह नृत्य आमतौर पर उनके त्योहारों और समारोहों के दौरान किया जाता है। कोली नृत्य समुद्र और मछली पकड़ने से संबंधित है, जिसमें लहरों, नावों और जाल डालने जैसी गतिविधियों का प्रतिनिधित्व किया जाता है। यह नृत्य जोड़ी में किया जाता है, जिसमें पुरुष विशिष्ट टोपी पहनते हैं।

ढोलूकुनीता नृत्य श्री बी. तकप्पा-शिमोगा , कर्नाटक  

ढोलूकुनीता कर्नाटक का एक लोकप्रिय लोक नृत्य है, जो मुख्य रूप से ढोल बजाने के साथ किया जाता है। यह नृत्य आमतौर पर पुरुष करते हैं, जो ढोल बजाते हुए और नृत्य करते हुए एक-दूसरे को हाथ में पकड़कर गोल घेरे में घूमते हैं। ढोलूकुनीता का अर्थ है “ढोल नृत्य”। यह नृत्य पारंपरिक रूप से कर्नाटक के ग्रामीण स्थानों में किया जाता है, खासकर विजय उत्सव, धार्मिक समारोह और अन्य विशेष अवसरों पर। ढोलूकुनीता नृत्य में ढोल की धुन और नृत्य की गतिशीलता प्रमुख होती है, जो इसे ऊर्जावान और आकर्षक बनाती है।

गोजरी नृत्य / सुश्री शमशाद बेगम एवं साथी-काश्मीर

गोजरी नृत्य जम्मू और कश्मीर के प्रसिद्ध नृत्य रूपों में से एक है, गुज्जर जनजाति द्वारा किया जाता है, जो सर्दियों में मैदानी इलाकों में रहते हैं और गर्मियों में पहाड़ों पर चले जाते हैं। यह नृत्य गुज्जर जनजाति के पुरुषों और महिलाओं दोनों द्वारा किया जाता है, जिनकी अपनी विशिष्ट भाषा, पोशाक और संगीत है। वे अपने रिश्तेदारों के विवाह के अवसरों पर अपनी खुशी और आनंद व्यक्त करने के लिए यह नृत्य करते हैं। आम तौर पर नृत्य लोक गीत के संगीत के अनुसार किया जाता है।

बागुरुम्बा नृत्य / श्री बरलुम्बफा नारजारी एवं साथी, असम

बागुरुम्बा असम का एक लोक नृत्य है, जो बोडो जनजाति द्वारा किया जाता है। यह एक पारंपरिक नृत्य है जो बोडो त्यौहार बैसागु के दौरान किया जाता है, जो सक्रांति के समय होता है। बागुरुम्बा नृत्य में सेरजा, सिफुंग, थरखा, खाम और मदल जैसे वाद्य यंत्र बजाए जाते हैं। यह नृत्य बोडो समुदाय की संस्कृति और परंपराओं को दर्शाता है। नृत्य युवक – युवती का सामूहिक नृत्य है। नृत्य में युवतियाँ दखना नाम की जनजातीय पोशाक पहनकर गाँव के घर-घर जाकर नृत्य-गीत गाकर खुशियाँ मनाते हैं। 

भील जनजातीय भगोरिया नृत्य/ श्री राहुल भावर एवं साथी-धार

मध्यप्रदेश के झाबुआ और अलीराजपुर क्षेत्र में निवास करने वाली भील जनजाति का भगोरिया नृत्य, भगोरिया हाट में होली तथा अन्य अवसरों पर भील युवक-युवतियों द्वारा किया जाता है। फागुन के मौसम में होली से पूर्व भगोरिया हाटों का आयोजन होता है।  भगोरिया नृत्य में विविध पदचाप समूहन पाली, चक्रीपाली तथा पिरामिड नृत्य मुद्राएं आकर्षण की केन्द्र होती हैं। रंग-बिरंगी वेशभूषा में सजी-धजी युवतियों का श्रृंगार और हाथ में तीरकमान लिये नाचना ठेठ पारम्परिक व अलौकिक सरंचना है।

ढेड़िया नृत्य  / सुश्री सुप्रिया सिंह, प्रयागराज , उत्तरप्रदेश

ढेड़िया नृत्य उत्तरप्रदेश का पारंपरिक लोक नृत्य हैं। किवदन्ती के अनुसार जब भगवान श्रीराम, माता सीता व लक्ष्मण वनवास के दौरान प्रयाग संगम दर्शन हेतु पधारे तब कुछ स्त्रियों को संदेह हुआ कि कहीं तीनों वनवासियों के पीछे शनिदेव भी न आ गये हों, तब स्त्रियों ने मिट्टी की छिद्रदार हांडियों में दिये रखकर आरती उतारी थी। तब से यह प्रथा ढेड़िया के नाम से जाना जाता है, जो कालान्तर में ढेड़िया लोक नृत्य के रूप में विकसित हुआ। अश्विन शुक्ल चतुर्दशी के दिन घर की बेटियाँ अपने भाई, पिता, दादा और बड़ों की ढेड़िया से नजर उतारती हैं व मंगल कामना करती हैं।

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