दीपक चाकरे
गगन को ढका बादलों ने,
चहूँ ओर देखो छाया हैं।
सर्द भरे छोटे दिन,
शीत लहरों ने भरमाया हैं।।
छूप रहाँ हैं सूरज,
छूपती रही दिन भर धूप।
प्रकृति खड़ी मौन-सी,
धरा का निखरता रुप।।
मखमली धवल चादर,
शिखरों ने कैसी ओढ़ी हैं।
गुमसुम सी नदियाँ बहती,
खंजन ने फिर चुप्पी तोड़ी हैं।
लहकने लगी हैं डालियाँ,
चहकने लगी हैं बुलबुल।
गिलहरी बनाती घरौंदा,
धनियां के महकते फूल।।
हरी चादरों से खेत सजे,
लहराती मचलती गेहूं बाली।
चादर तान मैदान सोया,
जाड़ा जतन से करता रखवाली।।
कही कभी छिटकती बूंदें,
और सर्द होता हैं मौसम।
पूस की रुत सुहानी,
छेड़ती हुई अनोखा सरगम।।
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