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नई पीढ़ी में सामाजिक गिरावट के प्रति बढ़ती चिंता

डाॅ. योगिता राठौड़

वर्तमान समाज एक गहरे संक्रमण काल से गुजर रहा है। तकनीकी उन्नति और भौतिक प्रगति के इस युग में हम जितनी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, उतनी ही तेजी से हमारी सामाजिक और नैतिक मूल्य-व्यवस्था कमजोर होती जा रही है। “संस्कारों का संकट” आज की सबसे गंभीर समस्याओं में से एक बन चुका है, जिसका सीधा प्रभाव नई पीढ़ी पर पड़ रहा है। आज का युवा भारत की आशा, ऊर्जा और भविष्य का प्रतीक है। लेकिन जिस चेतना से वह संचालित हो रहा है, उसमें नैतिक मूल्यों का अभाव एक गहन चिंता का विषय बनता जा रहा है। भौतिकवाद, प्रतियोगिता, और आधुनिकता के प्रभाव में युवा पीढ़ी मूल्यों से विमुख होती जा रही है। यह न केवल समाज के लिए चुनौती है, बल्कि राष्ट्र की सांस्कृतिक और नैतिक विरासत के लिए भी खतरा है।
संस्कार केवल रीति-रिवाज या परंपराएँ नहीं होते, बल्कि ये व्यक्ति के चरित्र निर्माण, आचरण और सामाजिक व्यवहार की नींव होते हैं। यही संस्कार एक बच्चे को एक संवेदनशील नागरिक, जिम्मेदार मानव और सुसंस्कृत समाज का हिस्सा बनने की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं।
आज की युवा पीढ़ी डिजिटल युग की पैदाइश है। इंटरनेट, सोशल मीडिया, रील संस्कृति और उपभोक्तावाद ने उनके सोचने-समझने और व्यवहार के तरीके को प्रभावित किया है। अब रिश्ते “फॉलो” और “लाइक” तक सीमित हो गए हैं, संवाद की जगह चैट ने ले ली है और सहनशीलता की जगह तात्कालिक प्रतिक्रिया ने।
संयुक्त परिवारों का विघटन और माता-पिता की व्यस्त दिनचर्या बच्चों को नैतिक शिक्षा देने में असमर्थ बना रही है। परिवार वह पहली पाठशाला है जहाँ मूल्यों का बीजारोपण होता है। लेकिन आजकल परिवारों में संवाद, सहअस्तित्व और अनुशासन की कमी देखी जा रही है।
आज की शिक्षा व्यवस्था नौकरी और प्रतिस्पर्धा तक सीमित होकर चरित्र निर्माण से दूर हो गई है। शिक्षा अब केवल परीक्षा और करियर तक सीमित हो गई है। चरित्र निर्माण, सेवा भावना और नैतिक निर्णयों की शिक्षा अब पाठ्यक्रम से गायब है।
फिल्मों, टीवी और सोशल मीडिया पर दिखाया जाने वाला आक्रामक, भौतिकतावादी और आत्मकेंद्रित व्यवहार युवाओं को गुमराह करता है। आभासी दुनिया में ह्यवास्तविकताह्ण की जगह ह्यप्रदर्शनह्ण ने ले ली है। युवा अपनी पहचान को लाइक और फॉलो के आधार पर आंकने लगे हैं।
आधुनिकता के नाम पर अपनी संस्कृति, भाषा और परंपराओं को त्यागना एक खतरनाक प्रवृत्ति बन चुकी है। सफलता का मापदंड आज केवल धन, प्रसिद्धि और दिखावे से तय होता है। इससे युवा केवल बाह्य उपलब्धियों के पीछे भाग रहा है।
समाज में ऐसे नायक अब कम होते जा रहे हैं जिनके चरित्र और जीवन मूल्यों से प्रेरणा ली जा सके। फिल्मी और राजनीतिक हस्तियों का आचरण भी कई बार भ्रमित करता है।
इस संस्कारहीनता का सीधा असर समाज पर पड़ा है। बढ़ती अपराध दर, पारिवारिक विघटन, मानसिक तनाव और अवसाद में वृद्धि, आत्महत्या और नशे की प्रवृत्ति में इजाफा, सामाजिक रिश्तों में दूरी और संवेदनहीनता, भ्रष्टाचार, अपराध और हिंसा में वृद्धि, राष्ट्र निर्माण में भागीदारी की कमी, वृद्धों की उपेक्षा और समाज में बढ़ती संवेदनहीनता इसके प्रमुख लक्षण हैं।
शिक्षा में नैतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक मूल्यों को फिर से स्थान देना होगा। शिक्षकों को भी इस दिशा में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। विद्यालयों में नैतिक शिक्षा, मूल्य शिक्षा और जीवन कौशल की पढ़ाई को अनिवार्य किया जाना चाहिए।
माता-पिता को बच्चों के साथ समय बिताना, उन्हें सुनना और उनके व्यवहार को सही दिशा देना चाहिए। माता-पिता को बच्चों के साथ संवाद बढ़ाना होगा। अपनी परंपराओं, आदर्शों और संस्कृति से उन्हें जोड़ना होगा।
समाज में ऐसे व्यक्तियों और आदर्शों को सामने लाना चाहिए जो नैतिकता और मूल्यों के प्रतीक हों। युवाओं को सकारात्मक मंच देना युवा अपनी ऊर्जा को रचनात्मक कार्यों में लगाएं—जैसे सेवा कार्य, नवाचार, सामाजिक नेतृत्व आदि। प्रेरक व्यक्तित्वों से जोड़ना स्वामी विवेकानंद, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे व्यक्तित्व युवाओं के आदर्श बन सकते हैं।
मनोरंजन जगत और सोशल मीडिया को सकारात्मक और प्रेरणादायक सामग्री प्रस्तुत करनी चाहिए। मनोरंजन और समाचार माध्यमों को मूल्यों को बढ़ावा देने वाले विषयों को प्राथमिकता देनी चाहिए।
संस्कारों की नींव पर ही एक समृद्ध और सशक्त समाज का निर्माण होता है। यदि हम नई पीढ़ी को नैतिक मूल्यों से जोड़ने में असफल रहे, तो समाज की दिशा और दशा दोनों ही गंभीर संकट में पड़ सकती हैं। अब समय आ गया है कि हम आत्मनिरीक्षण करें और अपनी संस्कृति, परंपराओं तथा मूल्यों की विरासत को नई पीढ़ी तक सही रूप में पहुंचाएं। संस्कारहीन विकास केवल बाहरी प्रगति है, जबकि सच्चा विकास उस समाज का होता है जिसमें व्यक्ति संवेदनशील, जिम्मेदार और नैतिक हो। युवा चेतना को जाग्रत करना केवल एक सामाजिक या शैक्षणिक कार्य नहीं, बल्कि राष्ट्रीय कर्तव्य है। यदि आज के युवाओं को नैतिक दृष्टि, संवेदनशीलता और मूल्यनिष्ठ सोच से जोड़ा जाए, तो आने वाला भारत अधिक सशक्त, संवेदनशील और समृद्ध होगा। केवल ज्ञान नहीं, “सद्गुणों से युक्त ज्ञान” ही समाज की दिशा बदल सकता है।

प्राचार्य

माँ नर्मदा कॉलेज ऑफ एजुकेशन धामनोद

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