संदीप राशिनकर
लोकल में, रास्ते में
बस की कतारों, या भीड़ में
कही तो टकराया होगा
वो आपसे भी, और पूछा
होगा
अपना नाम, पहचान
और बता सको तो, अपना
पता भी !
इस विराट, जन समूह में
सब जगह सबसे ही
बड़ी बेसन्री, बड़ी कातरता
से वह
पूछ रहा है, बार बार
अपना नाम, अपनी पहचान
और अपना पता भी, जो गुम
हो गया है
इस महानगर की, भगदड़
और
आपाधापी में !
खोए हुए, खुद के बारे में
चाहता है, वह सब जानना
ताकि लौट सके, उसी
मुकम्मल पहचान के साथ
जिसे ले वह, चला आया था
इस महानगरीय, मरीचिका
में !!
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