भोपाल। मध्यप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग द्वारा मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय में म.प्र. एवं देश के अन्य राज्यों में पारम्परिक जनजातीय एवं लोक समाजों में शारीरिक करतब एवं युद्ध की कलाओं केन्द्रित तीन दिवसीय समारोह ’उद्घोष’ का आयोजन 12 से 14 सितम्बर, 2025 में किया गया है। प्रतिदिन सायं 6.30 बजे से समारोह में देश के दस राज्यों के अठारह से अधिक कलारूपों की प्रस्तुतियों का संयोजन किया गया है, जिसमें कलरीपायतू, पइका, लेझिम, ढाल-तलवार रास, छाऊ, अखाड़ा, पाई डण्डा, सिलम्बम, थांगटा, गतका, पण्डवानी, आल्हा, बीछी, मलखम्भ और सैला नृत्य, गायन एवं युद्ध कौशल का प्रदर्शन होगा। समारोह का शुभारंभ कलाकारों के स्वागत से हुआ। इस दौरान निदेशक, जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी डॉ. धर्मेंद्र पारे उपस्थित रहे।


समारोह में कलाकारों द्वारा पारंपरिक भाले, धनुष-बाण, तलवारों एवं ढालों के साथ युद्ध कौशल की झलक प्रस्तुत कर रहे हैं।
गतिविधि में श्री लखन लाल यादव- महोबा (उत्तरप्रदेश) द्वारा पाई डंडा नृत्य की प्रस्तुति दी गई। यह बुंदेलखंड एवं उत्तरप्रदेश का पारंपरिक मार्शल आर्ट-आधारित लोक नृत्य है, जो दीपावली के अवसर पर किया जाता है और इसे श्रीकृष्ण लीला से प्रेरित माना जाता है। यह नृत्य आत्मरक्षा और शौर्य का प्रदर्शन करता है, जहाँ पुरुष लाठियों का उपयोग करके युद्ध कला का अभ्यास करते हैं। इस नृत्य में युद्ध कौशल, आत्मरक्षा के साथ-साथ आग के गोलों से निकलने जैसे कठिन करतब भी शामिल होते हैं।
वहीं श्री तुलसीरमन- तंजावुर (तमिलनाडु) द्वारा सिलंबम नृत्य की प्रस्तुति दी गई। “सिलंबम नृत्य” शब्द का प्रयोग इसलिए किया जाता है क्योंकि यह एक प्रदर्शन-आधारित कला है जिसमें गति, संतुलन और लय शामिल होती है। इसमें न केवल युद्ध की तकनीक होती हैं, बल्कि कलात्मक प्रदर्शन भी शामिल होता है। सिलंबम पारंपरिक हथियार-आधारित मार्शल आर्ट है जिसकी उत्पत्ति तमिलनाडु, भारत में हुई थी। इसमें बांस की लाठी का उपयोग करके युद्ध और प्रदर्शन किया जाता है।
श्री राजकुमार रायकवार, सागर (मध्यप्रदेश) द्वारा अखाड़ा नॉत्य की प्रस्तुति दी गई। बुंदेलखंड का अखाड़ा नृत्य पूर्व कई काल से चला आ रहा है। युद्ध के दौरान अस्त्रों-शस्त्रों का प्रयोग किया जाता था और उनसे बचने की कला भी सिखाई जाती थी। अखाड़ा शौर्य का प्रतीक है। आज भी मैहर में आल्हा और उदल का अखाड़ा है। बुंदेलखंड में अखाड़ा लोक नृत्य बहुत कम किया जाता है। बुंदेलखंड में अखाड़ा लोक नृत्य नवरात्रि के अवसर पर किया जाता है। इस कला में तलवार, ढाल, लाठी, भाला आदि शस्त्रों का प्रयोग किया जाता है। ढोल की थाप पर कलाकार नृत्य और शौर्य कला को दिखाते हैं।
अगले क्रम में श्री दमनजीत सिंह एवं साथी, गुरूदासपुर द्वारा गतका युद्ध कला की प्रस्तुति दी। “सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊं, तबै गोबिंद सिंह नाम कहाऊं”। सिखों के दसवें गुरु श्री गोविंद सिंह जी ने अपने अनुयाइयों से यह आह्वान किया था। अपने राज्य और दीन-दुखियों की रक्षा के लिए ‘गतका’ मार्शल आर्ट की शुरुआत हुई थी।
वहीं श्री मुतुम लोम्बूचा सिंह- (इम्फाल ईस्ट) मणिपुर द्वारा थांग-टा की प्रस्तुति दी। थांग-टा मणिपुर का एक प्राचीन मार्शल आर्ट है, जो तलवार और भाले का उपयोग करता है और इसे “तलवार और भाले की कला” भी कहा जाता है। इसमें युद्ध के प्रदर्शन के साथ-साथ विभिन्न अनुष्ठानों में युद्ध कौशल और आध्यात्मिकता का प्रदर्शन किया जाता है। नर्तक तलवार की चाल का प्रयोग या तो सुरक्षा के प्रतीक के रूप में या बुरी आत्माओं को दूर भगाने के लिए करते हैं। थांग-टा का अभ्यास करने के तीन तरीके हैं । पहला तरीका पूरी तरह से कर्मकांडी है और अनुष्ठानों से जुड़ा है। दूसरे तरीके में तलवार और भाले का नृत्य प्रदर्शन शामिल है। इन नृत्यों को वास्तविक युद्ध अभ्यास में बदला जा सकता है। वास्तविक युद्ध तकनीक तीसरी विधि है।
वहीं अक्षय सतीश एवं साथी, कोझीकोड़े (केरल) द्वारा कलरीपायत्तू की प्रस्तुति दी। दक्षिणी राज्य केरल की यह एक युद्ध कला है। संभवतः सबसे पुरानी युद्ध पद्धतियों में से एक है। कलरीपायत्तू शब्द, दो शब्दों की संधि है, पहला कलरी (मलयालम शब्द) जिसका अर्थ विद्यालय या व्यायामशाला है, तथा दूसरा पयत्तू का अर्थ अर्थ युद्ध-व्यायाम है।
श्री दुर्गा प्रसाद बारिक एवं साथी, भुवनेश्वर (उड़ीसा) द्वारा पइका नृत्य की प्रस्तुति दी गई। पइक या पाइका (ओडिशा) का एक युद्ध करने वाला समुदाय है, जो भारत के ओडिशा राज्य में देखने को मिलता है। उड़िया शब्द पाइका या पाइको, पदाटिका से लिया गया है, जिसका अर्थ है पैदल सैनिक। वे मूल रूप से सैन्य अनुचरों का एक वर्ग थे, जिन्हें 16वीं शताब्दी से ओडिशा के राजाओं सेवा प्रदान करने के लिए भर्ती किया गया था।
श्री विष्णु आनंद गवली-नासिक (महाराष्ट्र) द्वारा लेझिम नृत्य प्रस्तुत किया गया। लेझिम एक पारंपरिक लोक नृत्य शैली है जो भारत के महाराष्ट्र राज्य में व्यापक रूप से प्रचलित है। इसे अक्सर धार्मिक उत्सवों, सामाजिक समारोहों,शारीरिक व्यायाम और सांस्कृतिक गतिविधि के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। लेझिम नृत्य का नाम इस नृत्य के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले मुख्य वाद्य यंत्र ‘लेज़िम’ से लिया गया है। लेज़िम एक छोटा लकड़ी का इडियोफोन होता है जिसमें झनझनाती धातु की डिस्क लगी होती हैं, जिन्हें बजाने पर एक लयबद्ध ध्वनि उत्पन्न होती है। नर्तक आमतौर पर एक लेज़िम वाद्य यंत्र पकड़े रहते हैं और एक साथ नृत्य करते हैं, जिससे जटिल लयबद्ध पैटर्न बनते हैं।
सुश्री मीती हसमुख राय भट्ट-गांधीनगर (गुजरात) द्वारा ढाल/तलवार रास की प्रस्तुति दी गई। ढाल/तलवार रास, या तलवार रास, एक पारंपरिक नृत्य है जिसमें नर्तक तलवारों और ढालों के साथ युद्ध कला का प्रदर्शन करते हैं, यह योद्धाओं की बहादुरी और आत्म-सम्मान का प्रतीक है। यह विशेष रूप से गुजरात में प्रचलित है, जिसमें नर्तक ढाल-तलवारों से युद्ध-कौशल का प्रदर्शन करते हैं। यह नृत्य गुजरात में योद्धाओं की वीरता और शौर्य को प्रदर्शित करता है।
अगले क्रम में सृष्टिधर महतो एवं साथी, रांची (झारखंड) द्वारा पुरूलिया छऊ की प्रस्तुति दी गई। छऊ नृत्य पूर्वी भारत की एक परंपरा है जिसमें महाभारत और रामायण, स्थानीय लोकगीत और अमूर्त विषयों सहित महाकाव्यों के प्रसंगों को प्रस्तुत किया जाता है। छऊ नृत्य क्षेत्रीय त्योहारों, विशेष रूप से वसंत में मनाये जाने वाले त्योहार एवं चैत्र पर्व से जुड़ा है। यह नृत्य रात में खुली जगह में पारंपरिक और लोक धुनों पर किया जाता है। इसमें मोहरी और शहनाई का उपयोग किया जाता है। विभिन्न प्रकार के ढोल की गूंजती हुई ढोल की थाप संगीत समूह पर नृत्य करते हुए कथानक प्रस्तुत किया जाता है।
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