मदन शाक्यवार
प्रकृति ही सबका आधार है,
जीवन का सच्चा सत्कार है।
माँ बनकर देती है आश्रय,
हर प्राणी का करती पालन-व्रत।
मानव को दी उसने बुद्धि महान,
विवेक से चुन ले सच्चा मार्ग-विधान।
पर लोभ में अंधा हो जाता है,
अपनी ही जड़ों को काटता है।
जल, थल, वायु सब दूषित किए,
संसाधनों का दुरुपयोग किए।
आडंबर, पाखंड में भटका मन,
भूल गया मानवता का धन।
माँ जैसी प्रकृति सह लेती है,
फिर भी चेतावनी देती है।
पर जब अति का हो जाता वार,
तो प्रलय बन आती है तांडव-धार।
केदारनाथ की त्रासदी याद करो,
माँ की चेतना को आबाद करो।
मानव! अब भी सुधरने का समय है,
वरना विनाश का चरण निकटतम है।
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