यतीन्द्र अत्रे
इन दिनों रंग संस्कृति के संपादक सपरिवार निजी यात्रा पर जापान के उत्सुनोमियां शहर में हैं। इसका लाभ लेकर वे जापान की परिवहन व्यवस्था,वहां की संस्कृति को जानने का प्रयास कर रहे हैं इसी तारतम्य में उनके द्वारा साझा की गई पहली किश्त
उत्सुनोमियां, जापान। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव द्वारा की गई हाल ही की जापान यात्रा के समाचारों से मेरे मन में भी कौतूहल था कि मेरी जापान यात्रा के समय मैं यहां की बड़ी-बड़ी इमारतें, सुन्दर बड़े बाजारों को निहारूंगा, और इन सबके अतिरिक्त यदि मेरी प्राथमिकता थी तो वह बुलेट ट्रेन में एक बार यात्रा करने की थी।लेकिन इन सबसे परे यहां आकर मैं अचंभित हुआ उस व्यवस्था, उस सोच से जो जापानियों में कूट-कूट कर विराजमान थी।
सच्चा भारतवासी होने के नाते मुझे इस बात से जलन भी हुई फिर भी मैं मूक दर्शक था। गुलामी की जंजीरों से स्वतंत्र हुए हमें 78 वर्ष हो चुके हैं,हालांकि गुलामी का जो मंजर हमने देखा उससे सम्हलने में किसी भी देश को जो समय लगता हमने भी लिया। किंतु फिर भी हिरोशिमा और नागासाकी की घटना हमसे अधिक हृदय विदारक कहीं जा सकती है। हम भारतवासी दम भरते हैं कि अर्थव्यवस्था में हमने जापान को पछाड़ दिया है। मुझे इस देश में आए एक सप्ताह हुआ है, लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हमें जापान जैसे देशों से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता होगी। यहां आकर जिन बातों ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया,अपनी संचयिका की पोटली से निकालकर मैं आप सभी से साझा करना चाहूंगा।
तकनीकी कारणों से दिल्ली से टोक्यो की उड़ान 2 घंटे देरी से थी उसे मिलाकर 10 से 11 घंटे का सफर की झलक चेहरे और पूरे शरीर पर अनुभव की जा सकती थी,वही स्थिति हमारे साथ भी थी। बेटे बहु से मिलने की खुशी परवान पर थी।सो समयानुसार वे टोक्यो के हानेडा एयरपोर्ट पर लेने पहुंचे। टोक्यो से लगभग ढाई घंटे की दूरी पर उत्सुनोमिया हमारे सपनों का वह शहर था जो आज भी जापान के तोचिगी राज्य का हिस्सा है।
सड़क मार्ग से यात्रा आरंभ हुई, थकान के कारण नींद की झपकियाँ भी साथ हो लीं थी। सड़के कांच जैसी साफ सुथरी गड्ढों के दर्शन ढूंढने से भी नहीं सुलभ थे। चौराहों पर जब गाड़ी रेड सिग्नल के कारण रुकी तो वहां का दृश्य कुछ ऐसा था जहां जेबरा क्रॉसिंग पर गुजरने वाले व्यक्तियों की पंक्तियां दिखाई दे रही थी, ग्रीन सिग्नल होने के बाद भी वाहन चालक तब तक रुके होते जब तक गुजरने वाले सारे व्यक्ति जिनमे बच्चे बुजुर्ग, महिला पुरुष दूसरी और सुरक्षित नहीं पहुंच जाते। सिर्फ जेबरा क्रॉसिंग पर ही ये पैदल यात्री दिखाई दिए,हम इस कोशिश में थे किसी भी व्यक्ति को हम सड़क पर देखें पर क्या मजाल कि वाहनों के बीच या पास से भी गुजरते कोई पैदल राहगीर दिखाई दे जाता,बल्कि हमारे इस विचार को सिरे से नकारते हुए सड़कों के दोनों और महिला पुरुष बच्चे निर्मित पक्की फुटपाथ की जगह पर ही चलते हुए दिखाई दिए। मजे की बात यह थी कि, साइकिल चालक भी सड़क के दोनों ओर निर्मित इसी पक्की फुटपाथ की जगह से आवागमन कर रहे थे। लगभग उस 7 से 10 फीट की छोटी जगह के एक ओर पैदल राहगीरों के लिए तो दूसरी ओर साइकिल चालकों के लिए स्थान नियत था तथा बीच का स्थान बेल चिन्हों के साथ दिव्यांग जनों के लिए आरक्षित था। आश्चर्य इस बात का भी था कि कोई भी एक दूसरे की जगह पर अतिक्रमण नहीं कर रहा था। जहां कहीं सड़क पर नीले निशान से तीर बने होते वहां साइकिल चालकों को अपनी साइकिल सड़क पर चलाने की अनुमति थी। इसका तात्पर्य यह कतई नहीं था कि गुजरने वाले पैदल राहगीरों को सड़क के उपयोग का अधिकार ही नहीं है। सड़क पर उन्हें वाहन चालकों द्वारा सबसे अधिक प्राथमिकता दी जा रही थी, बल्कि यह कहना भी उचित होगा कि यह व्यवस्था उनकी सुरक्षा के लिए ही बनाई गई लग रही थी। छोटे चौराहों पर जहां सिग्नल नहीं होते वहां जापानी शब्द ‘तोमारे’ के चिन्ह बने हुए थे। जहां प्रत्येक वाहन चालक को रुकने के निर्देश थे। उनकी भाव भंगिमाओं से हमे इसका अर्थ यह समझ आया कि- रुकें,देखें फिर आगे बढ़े… इस दौरान यदि कोई पैदल व्यक्ति गुजर रहा हो तब उस स्थिति में वे वहां तब तक रुके रहेंगे जब तक वे व्यक्ति सड़क पार न कर लेते। मै आश्चर्यचकित इस बात से भी था कि, छोटी-छोटी गलियों के मोड़ पर भी तोमारे के चिन्ह मौजूद थे,जहां बिल्कुल भी यातायात का दबाव नहीं था उसके बावजूद पैदल व्यक्ति सड़क के दोनों और पंक्ति बनाकर चल रहे थे। स्थानीय लोगों की जानकारी के अनुसार यहां ट्रैफिक का शून्य दबाव होने पर भी वाहन चालक तोमारे का पालन करते हैं। यानिकि यदि सड़क पर चालक रुककर पहले देखेंगे कि कोई राहगीर सड़क पार तो नहीं कर रहा है,यह पक्का होने के बाद वे आगे बढ़ते हैं। एक और मजेदार किंतु सभ्यता को दर्शाती बात दिखाई दी जिसके तहत यदि कोई वाहन चालक दूसरे वाहन को पहले निकलने के लिए संकेत देता है तब दूसरा वहां उसका पालन करने के बाद पीछे की दो छोटी लाइट जलाकर उसे धन्यवाद ज्ञापित करता है,ऐसा करते हमने प्रत्यक्ष देखा। बड़े बाजारों से लेकर छोटी रहवासी कॉलोनीयों में पार्किंग व्यवस्था बिल्कुल व्यवस्थित दिखाई दी। बगीचे छोटे या बड़े हों यहां भी अद्भुत नजारा देखने को मिला,जिसके अंतर्गत वॉकिंग के समय परस्पर प्रति व्यक्ति की एक निश्चित दूरी दिखाई दी। महिला पुरुष अपने छोटे-छोटे प्यारे डॉगी के साथ घूमते नजर आए,लेकिन उनके हाथों में एक प्रकार की थैलियां मौजूद थी जो डॉगी के शौच निस्तारण करते समय जमीन और डॉगी के बीच तुरंत उपस्थित हो जाती।
ट्राम, लोकल ट्रेन में जब हमें यात्रा करने अवसर मिला,उस समय हमे प्रीपेड कार्ड दिए गए, उनसे यात्रा का किराया अदा करना था। स्टेशन पर पहले से बनी लोगों की पंक्ति में पीछे हम भी खड़े हुए। जब ट्राम आई तब वहां भीआशचर्य का सामना! कोई टिकट कलैक्टर मौजूद नहीं ,सारे पंक्तिबद्ध यात्रा करने वाले लोग ट्रेन के आगमन द्वार पर दोनों ओर लगी मशीनों से अपने प्रीपेड कार्ड स्वैप कर रहे थे, हमने भी वही किया। गंतव्य आने पर फिर कार्ड स्वैप किया जा रहा था, जानकारी लेने पर ज्ञात हुआ- ट्रेन या ट्राम में प्रवेश लेते समय कार्ड स्वैप होगा तब सिर्फ यात्रा आरंभ होगी शुल्क नहीं देना होगा, किंतु उतरते समय कार्ड स्वैप होगा तब उतनी दूरी के किराए का कार्ड से भुगतान हो जाएगा। फिर आश्चर्य! कयोंकि यहां तो हमारी अंगुलियों को भी दांतों के नीचे आ जाने का अवसर जो प्रदान हो गया। शरीर की मुद्राएं ऐसी हो गईं जैसे हम सोचने को बाध्य हो गए हों कि क्या यहां सारे लोग रोबोट हैं जो ईमानदारी से किराया अदा कर रहे हैं। स्टेशन पर एक फिलासफर महोदय से मुलाकात हुई, उन्होंने यह कहते हुए जैसे हमारे समक्ष एक बम फोड़ दिया कि यहां लोकल ट्रांसपोर्ट में कोई भी व्यक्ति मोबाइल फोन से बात नहीं करता है… हाय राम ! हम हिंदुस्तानी तो बिना मोबाइल फोन से बात करे इतनी देर कैसे रह सकते हैं। पर जो था वह सामने था। जब उन महोदय से प्रगाढ़ता बड़ी तब हमने पूछा यहां इतना अनुशासन क्यों है ? उन्होंने बताया हमने यहां इस सोच को विकसित किया है जिसमें हमारे द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति को शारीरिक या मानसिक हानि ना पहुंचे। जापानी भाषा में एक प्रचलित शब्द है- ‘wa’ जिसके अंतर्गत इनकी भावना होती है कि दूसरों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
अब तो उत्सुनोमियां में प्रभावित करने वाली श्रृंखला बन रही थी। इसी क्रम में बात फिर आगे बढ़ी- छोटे बाजारों से होते जब बड़े मॉल के लिए हम भ्रमण करने निकले तब वहां देखा कि ग्राहक आपस में एक निश्चित दूरी बनाकर खरीददारी कर रहे थे। दो व्यक्तियों के आमने-सामने आ जाने पर दोनों में से कोई भी पहला व्यक्ति निकलने के लिए दूसरे को प्राथमिकता देता, तब उस स्थिति में दूसरा व्यक्ति कमर से ऊपर के शरीर को झुकाकर उसका धन्यवाद ज्ञापित करता। वाह…यहां आकर तो ऐसा अनुभव हुआ जैसे जापानियों ने हमारा दिल जीत लिया हो । बाजारों में दुकानदार या उनके कर्मचारी ग्राहकों के आने का स्वागत और जाने पर उनका धन्यवाद करते सुर में गाते हुए कुछ इस तरह दिखे – इराश्याएमासे
अरिगातो गोजाएमास।
यानी कि आपका स्वागत है, आपके आने का धन्यवाद। जो ग्राहक उनके संस्थान में आ रहे हैं उनके लिए इराश्याएमासे… यानिकि आपका स्वागत करते हैं,और जो खरीददारी करने के बाद लौट रहे हैं उनका वे इसी प्रकार धन्यवाद करते हैं जैसे-अरिगातो गोजाएमास…। आप चौंकिएगा नहीं जब इन्हीं शब्दों के कोरस सुर यहां लोकल ट्रेन, बुलेट ट्रेन,और सड़क परिवहन की अन्य सुविधाओं में भी सुनाई दे जाएं।


जब हम उत्सुनोमियां के बाजार घूमने के बाद अपने गंतव्य की ओर लौट रहे थे तब सब कुछ अच्छा और प्रेरित करने वाला था पर फिर भी मन में एक टीस थी की क्या यहां गुलामी का प्रभाव विद्यमान है ? तभी कुछ दूरी पर एक स्थानीय व्यक्ति अपने कंधे पर टंगे बड़े झोले से एक छोटी थैली निकाल सड़क के किनारे गलती से छुटे, गिरे कचरे को उठाकर थैली में इक्कठा कर रहा था, चलते चलते वह कुछ दूरी पर रखे बड़े बड़े डस्टबीन में वे छोटी थैलियां डाल रहा था। हमने नजरअंदाज किया कि हो सकता है यह कोई प्रशासन का कर्मचारी हो किंतु दूसरी सड़क पर एक बुजुर्ग कपल दिखाई दिया वे भी यही कर रहे थे। उसी समय एक हवा का झोंका आया और हमारे उस दकियानूसी विचार को उड़ाकर ले गया…
है ना यह देश निराला। तो जनाब जब कभी आप जापान आने की योजना बनाएं तब यहां की प्राथमिकताओं को ध्यान जरूर दीजिएगा और फिर जब आप ऐसा करेंगे तो हो सकता है यहां आपके कानों में भी यही सुर सुनाई देंगे-
इराश्याएमासे,
अरिगातो गोजाए मास l
तो अगले अंक में मिलते हैं, जापान की फिर नई जानकारियों के साथ…
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