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समरसता के सेतु – श्रीराम

राघवेन्द्र शुक्ल,

विश्वामित्र जी का जन्म क्षत्रिय वंश में हुआ वह कन्नौज महाराज गाधि के पुत्र थे। एक दिन विश्वामित्र जी महामुनि ब्रह्मषी वशिष्ठ जी के आश्रम पर पहुंचे । विश्वामित्र जी ने महामुनि वशिष्ठ को प्रणाम किया। ऋषिवर ने भी उनका सम्मान किया। विश्वामित्र जैसे सम्राट पुत्र को अपने आश्रम में प्रकार वशिष्ठ मुनि बहुत प्रसन्न हुए । ऋषिवर ने विचार किया कि कन्नौज नरेश का राज सम्मान सत्कार होना चाहिए। परंतु महर्षि का आश्रम तो साधना भूमि का था । वहां साधन नहीं थे, आखिर राजा का सम्मान वैभवपूर्ण ढंग से कैसे किया जाए तो वशिष्ठ जी ने तपोवल से कामधेनु नंदिनी को प्रकट किया। नंदिनी से प्रार्थना की कि आप महाराज विश्वामित्र जी के सत्कार के लिए राज वैभव का निर्माण करो । देखते ही देखते वैभव प्रकट हो गया। दिव्य राजमहल, आमोद- प्रमोद के साधन , सेवक सेविकायें , सब कुछ तैयार हो गया । ऋषि वशिष्ठ जी ने आग्रह किया कि आप इस वैभव का आनंद लें यह सब आपके सम्मान के लिए तैयार किया गया है। विश्वामित्र जी यह सब देखकर अचंभित हुए । जब उनको ज्ञात हुआ कि यह सब तो कामधेनु का चमत्कार है तो उन्होंने वशिष्ठ जी से नंदिनी देने की प्रार्थना की । उन्होंने कहा कि गुरुदेव इतना वैभव देने वाली इस गाय की ऋषि के आश्रम में क्या आवश्यकता है । यह तो राजा के पास होनी चाहिए आपको इसकी क्या आवश्यकता है। आप तो त्यागी तपस्वी हैं। वशिष्ठ जी ने नंदिनी देने से मना कर दिया कि , यह तो स्वर्ग की संपत्ति है यह राज परिवार के लिए नहीं । परंतु विश्वामित्र जी ने कहा कि मुझे तो नंदिनी चाहिए ही किसी भी स्थिति में मैं आपसे नंदिनी लेकर रहूंगा। फिर क्या था ऋषि और राजा का संघर्ष आरंभ हो गया । राजा विश्वामित्र ने अपने सैन्य बल से वशिष्ठ जी को पराजित करने का बहुत प्रयत्न किया परंतु वशिष्ठ जी की आध्यात्मिक शक्ति, ब्रह्म शक्ति के सामने वे पराजित हो गए। कहने का तात्पर्य है कि यदि विश्वामित्र जी का स्वागत सादगी पूर्ण ढंग से होता तो यह संघर्ष खड़ा ही नहीं होता अर्थात जब-जब साधना भूमि पर साधन बढ़ेंगे तो विवाद को जन्म देंगे । *संत के आश्रम की शोभा वैभव से नहीं , विभूति से है* । राजा विश्वामित्र के पराजित मन ने यह मान लिया कि वशिष्ठ जी ब्राह्मण है और उनके ब्रह्म तेज से मैं पराजित हो गया हूं। विश्वामित्र जी ने अपना क्षत्रिय धर्म छोड़कर ब्रह्म तेज संपन्न बनने का संकल्प लिया । मैं चाहे क्षत्रिय हूं परंतु कर्म से ब्राह्मण बनूंगा और विश्वामित्र जी सिंहासन त्याग कर तप करने के लिए चले जाते हैं। कठोर तप से अब ब्रम्हर्षि हो गये। साधना का पक्ष प्रबल हुआ उनको अनुभूति हुई कि भगवान अवतार लेने वाले हैं। महामुनि विश्वामित्र अब अपने सिद्ध आश्रम में नित्य यज्ञ करते पर असुरी शक्तियां उनका विरोध करती, यज्ञ में बाधा डालती। तब ऋषि ने विचार किया कि इन राक्षसों के विनाश करने के लिए भगवान ने अवतार लिया है तो क्यों ना मैं उन्हें यहां ले आऊं। उनका भी उद्धार हो जाएगा और मुझे भी प्रभु के दर्शन हो जाएंगे । ऋषि अयोध्या की यात्रा पर चलते हैं राजा दशरथ के पास पहुंचकर उनसे राम जी को लक्ष्मण जी के सहित मांगते हैं। महामुनि विश्वामित्र को प्रभु राम मिल जाते हैं । जब राम जी का प्रथम दर्शन करते हैं तो आंखों से अश्रु झलक आते हैं। महामुनि ने मन में सोचा होगा कि प्रभु मैंने क्षत्रिय वंश को कमजोर समझा और शक्ति संपन्न होने के लिए ब्रह्म तेज के लिए मैं ब्राह्मण बना पर ब्राह्मण बनने के बाद भी मैं असुरों को नहीं मार पाया। मुझे आपकी शरण में आना पड़ा। दूसरा विचार मन में आया होगा कि मैं ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए क्षत्रिय से ब्राह्मण बना तब तक ब्रह्म प्रभु श्री राम क्षत्रिय वंश में महाराज दशरथ के घर जन्म लेकर पधार गए । तात्पर्य यह है की शक्ति संचय और ईश्वर प्राप्ति दोनों की आधार जाति नहीं हो सकती । कोई भी जाति में जन्म ले वह प्रभु को प्राप्त कर सकता है । ईश्वर कृपा से उसके जीवन में असुरी शक्तियों का विनाश हो सकता है । भगवान अनुज के सहित विश्वामित्र जी के साथ सिद्धाश्रम में जाते हैं और तड़का, मारीच सुबाहु को मारकर उनका यज्ञ पूरा करवाते हैं । महामुनि प्रभु को अपना शिष्य बनाकर शास्त्र एवं शस्त्र का ज्ञान प्रदान करते हैं । प्रभु श्री राम ने विश्वामित्र जी को अपना गुरु बनाया। वशिष्ठ जी उनके कुलगुरु थे ही। एक ब्राह्मण एवं दूसरे क्षत्रिय वंश में जन्मे विश्वामित्र को गुरु बनाकर भगवान समन्वय और समरसता का सेतु बनाते हैं । *कोई किसी भी वंश में जन्मा हो परंतु यदि उसमें योग्यता हो तो उससे ज्ञान ग्रहण किया ही जाना चाहिए। गुरु शिष्य के बीच ज्ञान का स्थानांतरण होना है जाति का नहीं। फिर जाति बंधन क्यों।* ‌ विश्वामित्र जी के साथ श्री राम जी जनकपुर पहुंचे वहां धनुष यज्ञ पूरा करते हैं और जब भगवान विवाह करके लौट आते हैं तब अयोध्या में महामुनि वशिष्ठ ब्रम्हर्षि विश्वामित्र जी का यश गान कर रहे हैं । एक समय उनमें नंदिनी -कामधेनु को लेकर संघर्ष हुआ था । भगवान राम की लीला से उन्हीं के बीच समन्वय स्थापित हुआ । भगवान राम दोनों के शिष्य बनकर समर्थ का सेतु बना देते हैं ।

राघवेंद्र शुक्ल

अधिवक्तता भोपाल l संपर्क मो .क्र. 93031 15581

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