Advertisement

जागृति का पर्व – धर्म, योग, आयुर्वेद और आत्मचेतना की पुनर्स्थापना

महेश अग्रवाल

निद्रा से जागृति तक की दिव्य यात्रा* देव उठनी एकादशी, जिसे प्रबोधिनी एकादशी भी कहा जाता है, भारतीय सनातन संस्कृति में जागरण का पर्व माना गया है। यह केवल देवताओं के उठने का उत्सव नहीं, बल्कि मानव चेतना के पुनर्जागरण का प्रतीक है। चार माह की अवधि आषाढ़ शुक्ल एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते हैं। इस अवधि को चातुर्मास कहा जाता है, जिसमें धर्म, तप, संयम, साधना और आत्मचिंतन की परंपरा निभाई जाती है। देव उठनी का अर्थ है भीतर की सुप्त दिव्यता को जगाना, आत्मा में छिपे आलोक को पहचानना। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि जब देवता जागते हैं, तो सम्पूर्ण सृष्टि में प्रेरणा, नवसृजन और धर्म की गति पुनः प्रारंभ होती है।

*देव उठनी एकादशी का पौराणिक और धार्मिक महत्व* पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब भगवान विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा में लीन होते हैं, तब समस्त देवता भी विश्रांति अवस्था में चले जाते हैं। यह काल प्रकृति का विश्राम काल है वर्षा और ग्रीष्म के बीच का परिवर्तन। कार्तिक शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु पुनः जागृत होते हैं, और यह माना जाता है कि इस दिन से सृष्टि के नये चक्र की शुरुआत होती है। देव उठनी के दिन तुलसी विवाह भी संपन्न होता है जो धर्म, प्रेम, ऊर्जा और प्रकृति के संगम का प्रतीक है। यह विवाह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि यह सन्देश देता है कि भक्ति और प्रकृति जब एक होती हैं, तब चेतना का सृजन होता है।

*एकादशी – इंद्रिय संयम और योग साधना का पर्व* एकादशी शब्द का अर्थ है ग्यारहवाँ तत्त्व, अर्थात पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ और मन। इन ग्यारहों का संयम ही एकादशी का सार है। योग की दृष्टि से एकादशी हमें प्रत्याहार और धारण का अभ्यास सिखाती है अर्थात इंद्रियों को भीतर की ओर मोड़ना और मन को केंद्रित करना। उपवास का वास्तविक अर्थ है उप + वास, अर्थात ईश्वर के समीप रहना। इस दिन जब हम आहार का संयम करते हैं, तो केवल शरीर नहीं, मन भी विश्रांति पाता है। वास्तव में एकादशी व्रत का उद्देश्य भूख या तपस्या नहीं, बल्कि शरीर, मन और आत्मा की शुद्धि है।

*योग निद्रा – विष्णु की दिव्य विश्रांति का रहस्य* भगवान विष्णु की योगनिद्रा केवल नींद नहीं है  वह पूर्ण साक्षीभाव की अवस्था है। जहाँ बाहर सब शांत है, पर भीतर चेतना सक्रिय है। योग निद्रा वही स्थिति है जब साधक शरीर की सीमाओं से ऊपर उठकर साक्षी चेतना में स्थापित होता है। देवशयन से देवोत्थान तक का यह काल हमें यह सिखाता है कि जीवन में विश्राम भी आवश्यक है ताकि पुनः जागरण और नवसृजन संभव हो। योग निद्रा आधुनिक जीवन के लिए भी एक अद्भुत उपाय है यह तनाव, अनिद्रा और मानसिक थकावट का शमन करती है, और साधक को भीतर की गहराई में स्थिर करती है। 

*आयुर्वेद की दृष्टि से एकादशी का उपवास* आयुर्वेद कहता है रोगों की जड़ पेट है, और पेट की जड़ अति- भोजन। एकादशी का उपवास पाचन अग्नि को स्थिर करता है, शरीर से विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालता है, और मन की स्पष्टता को बढ़ाता है। इस दिन फलाहार, दूध, जल या हल्का सात्त्विक भोजन ग्रहण करने से शरीर की ऊर्जा भीतर की ओर प्रवाहित होती है। त्रिदोष वात, पित्त और कफ का संतुलन बना रहता है। वास्तव में, एकादशी आयुर्वेदिक चिकित्सा का आध्यात्मिक रूप है।

*उपवास का योगिक विज्ञान – शरीर, मन और आत्मा का संतुलन* जब शरीर उपवास करता है, तब भीतर की जीवन ऊर्जा (प्राण) ऊपर की ओर उठती है। मन स्थिर होता है, और चेतना गहरी होती है। यह उपवास केवल भोजन से नहीं, बल्कि नकारात्मक विचारों, क्रोध, द्वेष और असंतोष से भी होना चाहिए। यही है योगिक उपवास शरीर का नहीं, अहंकार का त्याग।

*देवोत्थान – चेतना के जागरण का प्रतीक* देव का अर्थ है प्रकाश और उत्थान का अर्थ है ऊपर उठना। देव उठनी का अर्थ हुआ – भीतर के प्रकाश का ऊपर उठना। जब मनुष्य अपनी जड़ता, आलस्य, मोह और अज्ञान से ऊपर उठता है, तभी उसका देव जागृत होता है। योग व शास्त्र कहते हैं जो योगनिद्रा में विश्रांति पाता है, वह जागरण में निर्मल कर्म करता है। यह पर्व हमें सिखाता है – केवल पूजा नहीं, बल्कि जागरण ही जीवन का उद्देश्य है।

*तुलसी विवाह – प्रकृति और चेतना का मिलन* तुलसी को आयुर्वेद में अमृत कहा गया है। वह वायु शुद्ध करती है, शरीर में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती है, और मानसिक संतुलन बनाए रखती है। तुलसी विवाह का रहस्य यही है – यह विवाह विष्णु की चेतना और तुलसी की ऊर्जा का संगम है। यह हमें बताता है कि धर्म केवल मंदिरों में नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति श्रद्धा में भी है। तुलसी का पौधा हमारे घरों में भक्ति, स्वास्थ्य और सकारात्मक ऊर्जा का केंद्र बन जाता है।

*भक्ति योग और कर्मयोग की संगति* देव उठनी के दिन जब हम व्रत, पूजा, दान और भक्ति करते हैं, तब हम भक्ति योग का अभ्यास करते हैं। लेकिन गीता सिखाती है – भक्ति तभी पूर्ण होती है जब उसमें कर्म और अनासक्ति का संतुलन हो। कर्मयोग कहता है कर्म करो, लेकिन फल की चिंता मत करो। देव उठनी का संदेश यही है – कर्म करते हुए भी भीतर से शांत रहो, जैसे विष्णु योगनिद्रा में रहते हुए भी सृष्टि की गति बनाए रखते हैं।

*देव उठनी और ऋतु परिवर्तन का योग विज्ञान* देव उठनी का पर्व शरद ऋतु के अंत और शीत ऋतु के आरंभ का प्रतीक है। इस समय प्रकृति में नमी घटती है, और शरीर की जैव-ऊर्जा परिवर्तित होती है। योग और आयुर्वेद दोनों कहते हैं – इस समय शरीर को विश्राम, ध्यान और सात्त्विक आहार की आवश्यकता होती है। सूर्य नमस्कार, प्राणायाम और ध्यान इस ऋतु में विशेष रूप से उपयोगी हैं। यह शरीर की प्रतिरक्षा शक्ति बढ़ाते हैं और मन को संतुलित करते हैं।

*आत्मजागरण – योग निद्रा से समाधि तक की यात्रा* योग निद्रा, ध्यान और समाधि – ये तीन अवस्थाएँ एक ही चेतना की यात्रा के चरण हैं। देव उठनी एकादशी हमें सिखाती है कि सोई हुई चेतना को जगाओ। जब भीतर का देव उठता है, तो जीवन का अंधकार मिट जाता है। हमारा लक्ष्य केवल बाहरी उपवास नहीं, बल्कि अज्ञान का उपवास है। सच्चा जागरण तब होता है जब हम अपने भीतर के प्रकाश को पहचानते हैं – वही आत्मजागरण है।

*सामाजिक, पारिवारिक और मानवता का संदेश* देव उठनी का उत्सव परिवार और समाज के पुनर्संयोजन का भी प्रतीक है। चातुर्मास के बाद जब विवाह, संस्कार और उत्सव आरंभ होते हैं, तब समाज की गति पुनः जीवंत होती है। यह पर्व हमें सिखाता है कि एकता, सेवा और करुणा ही धर्म का सार है।इस दिन दान, सेवा, गाय, गौशाला और अन्नदान का विशेष महत्व है क्योंकि जब हम दूसरों के जीवन में प्रकाश फैलाते हैं, तभी वास्तव में हमारे भीतर का देव उठता है।

*योग और एकादशी – आत्मानुशासन का गूढ़ विज्ञान* पतंजलि योगसूत्र में कहा गया है योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः योग का अर्थ है मन की वृत्तियों का स्थिर होना। एकादशी व्रत इसी सिद्धांत का व्यवहारिक रूप है। जब साधक इंद्रियों को नियंत्रित करता है, मन को संयमित करता है और शरीर को सात्त्विकता में स्थिर रखता है, तब उसका मन निर्मल होता है। यह निर्मलता ही प्रबोधन है जागरण की प्रथम सीढ़ी। योगिक दृष्टि से एकादशी का संबंध प्रत्याहार और धारण से है अर्थात मन को इंद्रियों से हटाकर भीतर केंद्रित करना। वास्तव में, उपवास तभी सफल है जब उसमें ध्यान, मौन और आत्मसंवाद सम्मिलित हो।

*योगनिद्रा और ध्यान – विष्णु के जागरण का प्रतीकात्मक अर्थ* भगवान विष्णु की योगनिद्रा केवल विश्रांति नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय संतुलन का प्रतीक है। योगनिद्रा वह स्थिति है जहाँ मन स्थिर, शरीर विश्राम में और चेतना जागृत होती है। यह स्थिति ध्यान की प्रारंभिक अवस्था है। मानव जीवन में यह स्थिति तब आती है जब व्यक्ति कर्तापन से मुक्त होकर साक्षीभाव में स्थित हो जाता है। देव उठनी के दिन यह संदेश मिलता है जीवन में कार्य करो, लेकिन कर्म में लिप्त मत हो। साक्षी बनो, जैसे विष्णु साक्षी होकर भी सृष्टि को गतिमान रखते हैं।

*आयुर्वेदिक दृष्टि से चातुर्मास और एकादशी का संबंध* आयुर्वेद कहता है कि चातुर्मास वर्ष का सबसे संवेदनशील काल है, क्योंकि इस समय मौसम बदलता है, पाचन शक्ति मंद होती है, और रोगों की संभावना बढ़ती है। इसलिए ऋषियों ने इस काल में व्रत, तप, संयम और योग साधना की परंपरा बनाई। देव उठनी एकादशी उस अवधि का समापन है जब शरीर और मन दोनों नये सिरे से तैयार होते हैं। व्रत, फलाहार और हल्का भोजन इस परिवर्तन के समय शरीर को शुद्ध करते हैं। यह उपवास शरीर के आंतरिक अग्नि तत्व को पुनः प्रज्वलित करता है, जिससे ऊर्जा और प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। आयुर्वेद में कहा गया है हल्का और सात्त्विक भोजन करने वाला व्यक्ति दीर्घायु और प्रसन्नचित्त रहता है।

*प्राण, मन और आत्मा – देवोत्थान का वैज्ञानिक आयाम* देव उठनी केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं, बल्कि मानव शरीर की ऊर्जा प्रणाली से भी जुड़ा है। योग विज्ञान कहता है कि शरीर में पाँच प्रमुख प्राण – प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान – निरंतर सक्रिय रहते हैं। जब साधक उपवास, ध्यान और मौन का पालन करता है, तो ये प्राण संतुलित होकर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवाहित होने लगते हैं। यह ऊर्जा जब ऊपर उठती है, तब व्यक्ति में चेतना का जागरण होता है। यही देवोत्थान का योगिक अर्थ है भीतर की सुप्त ऊर्जा (कुंडलिनी) का आरोहण।

*मानसिक और मनोवैज्ञानिक लाभ – उपवास से ध्यान तक* आज के युग में तनाव, अनिद्रा, चिंता और अवसाद मनुष्य के स्थायी साथी बन गए हैं। देव उठनी एकादशी का उपवास, मौन और ध्यान इन विकारों का प्राकृतिक उपचार है। आधुनिक मनोविज्ञान भी यह मानता है कि संयमित उपवास और ध्यान से मस्तिष्क में सेरोटोनिन और डोपामिन का संतुलन होता है, जिससे मन प्रसन्न और शांत रहता है। एकादशी पर इंद्रिय संयम का अभ्यास मानसिक विषहरण के समान है। जो व्यक्ति इस दिन मौन साधता है, वह वास्तव में अपने भीतर की आवाज़ सुनने लगता है – वही आत्मसंवाद योग का प्रथम सोपान है।

*आधुनिक जीवन में देव उठनी का संदेश* वर्तमान युग में जहाँ भौतिकता ने मनुष्य को बाहरी जगत में उलझा दिया है, वहाँ देव उठनी एकादशी हमें भीतर झाँकने की प्रेरणा देती है। यह पर्व हमें सिखाता है कि जीवन में यदि सच्चा सुख चाहिए, तो आध्यात्मिक अनुशासन आवश्यक है। आधुनिक मनुष्य को विष्णु की योगनिद्रा से यह सीख लेनी चाहिए कभी-कभी हमें भी रुककर, ठहरकर, मौन होकर अपने भीतर उतरना चाहिए। तभी। तभी हम जीवन की भागदौड़ में संतुलन बनाए रख सकते हैं। आज जब लोग डिजिटल जागरण में हैं  रातभर जागते हैं, शरीर थकता है, मन असंतुलित होता है देव उठनी हमें याद दिलाती है कि सच्चा जागरण ईश्वर चेतना का है, न कि केवल जागे रहने का।

*पर्यावरण और जीवनशैली का समन्वय* देव उठनी के साथ जब विवाह और मांगलिक कार्य प्रारंभ होते हैं, तो यह केवल सामाजिक परंपरा नहीं, बल्कि प्रकृति के संतुलन से जुड़ी व्यवस्था है। इस समय वातावरण स्वच्छ, तापमान अनुकूल और आकाश निर्मल होता है  यही ऋतु आरंभ के लिए सर्वोत्तम मानी गई है। तुलसी, आंवला, गिलोय जैसे पौधे इस समय अपनी औषधीय शक्ति के चरम पर होते हैं। इसलिए तुलसी विवाह और आंवला सेवन की परंपरा भी इसी समय रखी गई  ताकि मनुष्य प्रकृति के साथ एकाकार हो सके। यह दर्शाता है कि भारतीय संस्कृति का हर पर्व प्रकृति विज्ञान से जुड़ा है, केवल आस्था से नहीं।

*योगिक जीवनशैली – देवोत्थान के बाद साधक का मार्ग*

देव उठनी के बाद साधक को अपने जीवन में चार बातें दृढ़ करनी चाहिए नियमित ध्यान और प्राणायाम। सात्त्विक आहार और समय पर विश्राम। सेवा। सेवा, दान और करुणा का अभ्यास। मौन और आत्मचिंतन का समय। इन चार अभ्यासों से भीतर का विष्णु सदैव जागृत रहता है। योग कहता है जब साधक अपने भीतर के देव को जाग्रत रखता है, तब जीवन के हर कर्म में योग जुड़ जाता है।

*गीता और योग वाशिष्ठ का सन्देश* गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं मनुष्य को स्वयं अपने को ऊपर उठाना चाहिए, अपने को नीचे नहीं गिराना चाहिए। यह देवोत्थान का सच्चा अर्थ है स्वयं को ऊपर उठाना, अपने भीतर के देव को जाग्रत करना। योग वाशिष्ठ में भी कहा गया है संसार बाहर नहीं, हमारे मन की वृत्तियों में है। जब मन स्थिर हो जाए, तो मुक्ति यहीं है। देव उठनी एकादशी उसी मुक्ति की अनुभूति का दिन है।

*सामूहिक साधना और आध्यात्मिक चेतना* आज जब समाज में विभाजन, कलह और असंतोष बढ़ रहा है, तब देव उठनी जैसे पर्व सामूहिक एकता के सेतु बन सकते हैं। यदि हर व्यक्ति इस दिन सामूहिक ध्यान, प्राणायाम या सामूहिक भजन का आयोजन करे, तो वातावरण में सकारात्मक कंपन बढ़ता है। योग के अनुसार, सामूहिक जप, कीर्तन और ध्यान से संगठन चेतना जागती है, जिससे समाज में एकता और प्रेम का भाव फैलता है। यह दिन इसलिए भी विशेष है कि जब सब मिलकर प्रार्थना करते हैं, तो व्यक्तिगत ऊर्जा सामूहिक चेतना में बदल जाती है।

*आध्यात्मिक जागरण – भीतर के विष्णु को जगाओ* विष्णु का अर्थ है जो सर्वत्र व्याप्त है। देव उठनी का अर्थ है  उस सर्वव्यापक चेतना को अपने भीतर जाग्रत करना। जब हम ध्यान में बैठते हैं और भीतर के मैं को पहचानते हैं, तब अनुभव होता है वह परम चेतना जो विष्णु कहलाती है, वही मेरे भीतर की आत्मा है। तभी साधक समझता है – मैं वही हूँ – अहं ब्रह्मास्मि। यह अहसास ही सच्चा देवोत्थान है – जब सीमित जीव अनंत चेतना में विलीन हो जाता है।

*चेतना का अमृत महोत्सव* देव उठनी एकादशी का सन्देश केवल एक दिन का नहीं, यह सम्पूर्ण जीवन का सूत्र है। जीवन में जब-जब अंधकार, मोह, चिंता या असंतुलन बढ़े  तब हमें याद रखना चाहिए कि देव कभी नहीं मरते, केवल सो जाते हैं। और जब हम ध्यान, योग, भक्ति या सेवा से भीतर की ऊर्जा को जगाते हैं, तब वही देव पुनः उठता है। देव उठनी एकादशी हमें सिखाती है व्रत करो, पर अंधविश्वास से नहीं, भक्ति करो, पर दिखावे से नहीं, योग करो, पर केवल शरीर के लिए नहीं – आत्मा के लिए भी। यह पर्व अंततः हमें स्वयं से जोड़ता है, प्रकृति से जोड़ता है, और ब्रह्म चेतना से जोड़ता है।

योग गुरु महेश अग्रवाल नें बताया कि देव उठनी एकादशी आत्मा के पुनर्जागरण की पुकार है। यह हमें बताती है कि जब मनुष्य भीतर के देव को जगाता है, तब वही उसकी सबसे बड़ी पूजा है। योग, ध्यान, भक्ति और आयुर्वेद ये चार दिशाएँ मिलकर मानव जीवन को समरस बनाती हैं।आइए, इस एकादशी पर हम सब यह संकल्प लें हम अपने भीतर के विष्णु को जगाएँ, तुलसी जैसी पवित्रता को जीवन में उतारें, और संसार में प्रेम, सेवा, संयम और सत्य का दीपक जलाएँ। यही सच्चा देवोत्थान है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *