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कार्तिक पूर्णिमा और देव दीपावली – धर्म, अध्यात्म, योग और स्वास्थ्य का दिव्य संगम

महेश अग्रवाल

भारतीय संस्कृति में प्रत्येक पर्व केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं होता, वह जीवन के प्रत्येक आयाम – आध्यात्मिक, सामाजिक, स्वास्थ्य और पर्यावरणीय चेतना – का उत्सव होता है। ऐसा ही एक दिव्य पर्व है कार्तिक पूर्णिमा, जिसे देव दीपावली के नाम से भी जाना जाता है। दीपों से प्रकाशित यह रात्रि केवल बाहरी रोशनी का उत्सव नहीं, बल्कि अंतःकरण की ज्योति जाग्रत करने का आह्वान है। यह वह समय है जब प्रकृति वर्षा और शरद ऋतु के बाद संतुलन की ओर बढ़ती है। वातावरण शुद्ध, पवित्र और शांत होता है। सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण की दिशा की ओर धीरे-धीरे झुकने लगता है। जलवायु में निर्मलता और मन में शांति स्वतः उतरने लगती है। इसी समय मनुष्य के भीतर आत्म-चिंतन, साधना और ब्रह्मसाक्षात्कार की सहज प्रवृत्ति जागृत होती है।

*पौराणिक और धार्मिक महत्त्व* कार्तिक पूर्णिमा का वर्णन स्कन्द पुराण, पद्म पुराण और महाभारत में अत्यंत श्रद्धा से हुआ है। इस दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर नामक तीन असुरों का संहार किया था, जो तीनों लोकों में अत्याचार कर रहे थे। इसी कारण भगवान शिव को त्रिपुरारी कहा गया। इस विजय के उपलक्ष्य में देवताओं ने दीप प्रज्वलित कर आनंद मनाया। तब से यह दिन देव दीपावली के रूप में मनाया जाता है – अर्थात् जब देवता स्वयं दीप प्रज्वलित कर आनन्दोत्सव करते हैं। इस दिन भगवान विष्णु के मत्स्यावतार का भी स्मरण किया जाता है। यह वह दिन है जब सृष्टि की रक्षा हेतु विष्णु ने जीव- जगत् को जल-प्रलय से बचाने का संकल्प लिया था। अतः कार्तिक पूर्णिमा संरक्षण और संतुलन का भी प्रतीक है। गंगा स्नान, दीपदान और दान-पुण्य का इस दिन विशेष महत्व है। कहा गया है – कार्तिके स्नानदानाभ्यां मुक्तिं प्राप्नोति मानवः।अर्थात् कार्तिक मास में स्नान और दान करने वाला मनुष्य जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होता है।

*आध्यात्मिक प्रतीक और योगिक दर्शन* दीप का अर्थ केवल प्रकाश नहीं, बल्कि आत्मा का जागरण है।जब मनुष्य ध्यान और साधना के माध्यम से अपने भीतर की अंधकारमय प्रवृत्तियों – काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार – को शांत करता है, तभी भीतर का दीपक प्रज्वलित होता है। योग दर्शन कहता है – तमसो मा ज्योतिर्गमय – अंधकार से ज्योति की ओर बढ़ो। पूर्णिमा का चंद्र – पूर्णता का प्रतीक है। जब चंद्र पूर्ण होता है, तब जल में उसकी छवि सबसे अधिक स्पष्ट होती है। ठीक वैसे ही जब मन निर्मल और शांत होता है, तब उसमें आत्मा का प्रकाश प्रतिबिंबित होता है। कार्तिक पूर्णिमा पर किया गया ध्यान, जप, मौन और आत्मावलोकन जीवन में स्थिरता और दिव्यता लाता है।

*कार्तिक स्नान और शरीर-शुद्धि का विज्ञान* प्राचीन ऋषियों ने ऋतुचक्र के साथ शरीर और प्रकृति के सामंजस्य पर गहरा ध्यान दिया था। कार्तिक माह में प्रातःकालीन स्नान का अत्यधिक महत्व इसी कारण है। जल तत्व शरीर में कफ दोष को नियंत्रित करता है, साथ ही मानसिक अशुद्धियों को भी दूर करता है। ठंडे जल में स्नान से रक्तसंचार उत्तेजित होता है, इंद्रियों की सक्रियता बढ़ती है, और शरीर में ऊर्जा का प्रवाह तीव्र होता है। तिल, गुड़, तुलसी, नीम और गोमूत्र से स्नान शरीर की प्रतिरक्षा को मजबूत करते हैं। कार्तिक स्नान को आधुनिक विज्ञान जलचिकित्सा की दृष्टि से देखता है – यह शरीर और मन दोनों को सक्रिय और रोग-मुक्त बनाता है।

*दीपदान और प्रकाश चिकित्सा* दीपदान का अर्थ केवल ईश्वर को दीप अर्पण नहीं, बल्कि अपने भीतर की नकारात्मकता को जलाना है। दीपक की लौ मन को एकाग्र करती है, इसलिए त्राटक साधना में लौ को देखने का अभ्यास किया जाता है। यह नेत्रों की ज्योति बढ़ाने और मानसिक स्थिरता के लिए अति उपयोगी है। दीपक का अग्नि तत्व हमारे भीतर के प्राण तत्व को सक्रिय करता है। जैसे दीपक स्वयं जलकर दूसरों को रोशनी देता है, वैसे ही मनुष्य को भी अपने कर्म और सेवा से संसार में प्रकाश फैलाना चाहिए।

*देव दीपावली – काशी की दिव्यता* वाराणसी में कार्तिक पूर्णिमा की रात अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करती है। गंगा तट सहस्र दीपों से प्रकाशित हो उठते हैं, मंदिरों में आरती होती है, और गंगा जल में प्रतिबिंबित दीपों का नृत्य देखने वाला दृश्य अनिर्वचनीय होता है। इस दिन गंगा के घाटों पर लाखों दीपक प्रज्वलित होते हैं – यह केवल दृश्य आनंद नहीं, बल्कि पंच तत्वों की आराधना है – भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश – जिनसे यह सम्पूर्ण सृष्टि बनी है। संतों और साधकों के लिए यह रात्रि समाधि-जागरण की रात्रि है। गंगा की लहरें जैसे दिव्यता का संगीत सुनाती हैं, वैसे ही यह पर्व हमें अपने भीतर के संगीत से जुड़ने का संदेश देता है।

*धार्मिक और सामाजिक आयाम*

कार्तिक पूर्णिमा हमें दान और सेवा की भावना सिखाती है। दान का अर्थ केवल वस्तु देना नहीं, बल्कि प्रेम, सहानुभूति, समय और श्रम देना भी है। इस दिन अन्नदान, वस्त्रदान, गोसेवा, ब्राह्मणभोजन और गरीबों को दीपदान की परंपरा है। यह सामाजिक समरसता का उत्सव है, जिसमें हर वर्ग का व्यक्ति समानता से सम्मिलित होता है। गंगा स्नान का पर्यावरणीय सन्देश भी गहरा है – जल ही जीवन है, इसे पवित्र और संरक्षित रखना मानव का कर्तव्य है।

*योगिक दृष्टि से कार्तिक पूर्णिमा*

कार्तिक माह में प्राणायाम, ध्यान और मौन साधना का विशेष महत्व बताया गया है। यह समय शरीर के पंचकोशों – अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय – की शुद्धि का काल है। अन्नमय कोश की शुद्धि के लिए हल्का, सात्त्विक, मौसमी आहार। प्राणमय कोश के लिए भस्त्रिका, नाड़ीशोधन, अनुलोम- विलोम।मनोमय कोश के लिए मौन और ध्यान। विज्ञानमय कोश के लिए आत्मचिंतन और स्वाध्याय। आनंदमय कोश के लिए भक्ति और सेवा। योग की दृष्टि से यह समय संतुलन और समर्पण का है – जहाँ चंद्र की पूर्णता और सूर्य की कोमलता मनुष्य में समान रूप से विद्यमान होती है।

*स्वास्थ्य, दिनचर्या और आहार-विहार* कार्तिक मास की ठंड में शरीर को रोगों से बचाने हेतु दिनचर्या का संयम आवश्यक है। सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान, सूर्य को अर्घ्य, योगासन और प्राणायाम से दिन की शुरुआत करनी चाहिए। आहार में – तिल, गुड़, दूध, मूँग, सत्तू, अदरक, तुलसी, घी, शहद और मौसमी फल श्रेष्ठ माने गए हैं। रात्रि में जल्दी सोना और सुबह सूर्य की पहली किरण का स्वागत करना स्वास्थ्यप्रद है। दीपक की लौ के सम्मुख बैठकर ध्यान करना – त्राटक – मन और नेत्र दोनों के लिए अमृत है। रात को तुलसी के पास दीप जलाना वातावरण को रोगाणु-मुक्त करता है।

*मनोवैज्ञानिक और प्रेरक संदेश*

कार्तिक पूर्णिमा हमें यह सिखाती है कि प्रकाश केवल बाहर नहीं, भीतर भी जलाना है। जो व्यक्ति अपने भीतर का दीप प्रज्वलित कर लेता है, उसके चारों ओर अंधकार स्वयं समाप्त हो जाता है। यह पर्व हमें संयम, सेवा, और सहअस्तित्व का संदेश देता है। जीवन में जब हम दूसरों के लिए दीप जलाते हैं – तो हमारे भीतर का अंधकार स्वतः समाप्त हो जाता है। दीप जलाना एक कर्म नहीं, एक संकल्प है – कि मैं स्वयं प्रकाश बनूँ और जीवन को ज्योतिर्मय करूँ।

*आत्मप्रकाश की यात्रा* कार्तिक पूर्णिमा केवल एक तिथि नहीं, बल्कि आत्मा के जागरण की प्रेरणा है। यह पर्व हमें यह स्मरण कराता है कि जीवन का उद्देश्य केवल भोग नहीं, योग है, केवल कमाना नहीं, करुणा है; केवल दीपक जलाना नहीं, स्वयं दीप बन जाना है। जब मनुष्य अपने भीतर के दीप को जलाता है – तो देवता स्वयं उसके भीतर निवास करते हैं, और वही अवस्था देव दीपावली की सच्ची अनुभूति है।

लेखक परिचय – योग गुरु महेश अग्रवाल संचालक आदर्श योग आध्यात्मिक केन्द्र, स्वर्ण जयंती पार्क, कोलार रोड, भोपाल। योग, अध्यात्म, जीवनशैली और भारतीय संस्कृति के गहन अध्येता। आपके मार्गदर्शन में अनेक साधक जीवन में शारीरिक, मानसिक और आत्मिक संतुलन प्राप्त कर रहे हैं।

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