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 आजादी 

 डॉ.सतीश बब्बा 

फड़फड़ाता हूं मैं,

बंद पिंजरे में,

लगे ताले हैं रिश्तों के,

घर बाजार, समाज,

के भ्रम में भ्रमित हूं,

कैद हूं फिर भी,

आजादी का भ्रम है,

निकलना कठिन है!

कोई अच्छा सा फल देकर,

कोई लाल मिर्च देकर,

लुभाते हैं, पढ़ाते हैं,

हम बस लुभाकर इसी में,

पड़े – पड़े फड़फड़ाते हैं,

आजादी के लिए तरसते हैं,

जान नहीं पाते हैं असलियत,

फिर एक दिन उड़ जाते हैं!

एक बार सिर्फ एक बार,

हम नहीं सोच पाते हैं कि,

हम आजाद नहीं कैदी हैं,

यह लुभावने मिर्च, फल हैं,

ए सभी बहेलिया ठग हैं,

खुद ठगे जा रहे हैं,

खुद को नहीं पहचान पाते हैं,

जीवन भर हमें भरमाते हैं!

आओ कुछ उपाय करते हैं,

आजादी पाने के लिए,

हम पंख फड़फड़ाते हैं,

सभी निर्दयी हैं लोभी-लालची हैं,

आजादी पाकर हम उड़ जाते हैं,

भ्रमवश भूल जाते हैं,

यही सब की हालातें हैं,

यह जग भ्रम है जान नहीं पाते हैं!!

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