फिल्मों में मध्यम वर्ग के पैरोकार थे बासु चटर्जी

विनोद नागर

सत्तर और अस्सी के दशक में जब हिन्दी फिल्मों में मारधाड़ अपने चरम पर थी तब सामानांतर फिल्मों और फार्मूला फिल्मों के बीच जिन फिल्मकारों ने एक नया मध्य मार्ग विकसित किया उसके पुरोधा थे बासु चटर्जी. अजमेर में जन्मे बासु चटर्जी ने गुरुवार को वृद्धावस्था से जुडी बीमारियों के चलते नब्बे साल की उम्र में मायानगरी को अलविदा कह दिया. हिन्दी फिल्मों के इतिहास में उनका नाम सिनेमा की मुख्य धारा को चुनौती देकर बॉक्स ऑफिस पर मारधाड़ विहीन छोटे बजट की साफ़ सुथरी मौलिक फिल्मों की विराट सफलता दर्ज कराने वाले सरल फ़िल्मकार के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए.
तीसरी कसम में बासु भट्टाचार्य और सरस्वती चन्द्र में गोविन्द सरैया के सहायक रहे बासु दा की पहली फिल्म ‘सारा आकाश’ (1969) सामानांतर सिनेमा के मील के पत्थरों में से एक मानी जाती है. मगर जब ताराचंद बड़जात्या ने उन्हें महानगर की आवास समस्या से जूझती नव विवाहिता की मनोदशा पर केन्द्रित ‘पिया का घर’ (1972) का निर्देशन सौंपा, हिन्दी सिनेमा को मध्यम वर्ग का एक नया सृजनशील पैरोकारी फिल्मकार मिल गया. वे एक कुशल पटकथा व संवाद लेखक भी थे.
अगले एक दशक तक बासु दा ने अपनी लगभग हर फिल्म में समाज के मध्यम वर्ग का परिवेश अलग अलग कहानियों में बड़ी कुशलता से उकेरा. बंगलाभाषी फिल्मकार होने के बावजूद हिंदी में उनकी फिल्मों की नामावली भी दर्शकों का दिल जीतने वाली थी. 1974 में आई छोटे बजट की रजनीगंधा को जब बड़ी कामयाबी और फिल्म फेयर का विशेष पुरस्कार मिला तो बासु चटर्जी की गणना हृषिकेश मुखर्जी और गुलज़ार की परंपरा को आगे बढाने वाले निर्देशक के बतौर होने लगी थी.
मन्नू भंडारी की कहानी पर आधारित अपनी इस बहुचर्चित फिल्म में उन्होंने अमोल पालेकर जैसे बैंक कर्मचारी को मध्यम वर्ग के सीधे सादे सकुचाते नायक और नवोदित विद्या सिन्हा को नायिका के रूप में इतनी सहजता से पेश किया कि उस कालखंड के नामी सितारे देखते ही रह गए. अमोल को तो रजनीगन्धा की महक ने जीवन भर के लिए महका दिया. हालाँकि विद्या सिन्हा को भी कालांतर में राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, संजीव कुमार सरीखे धुरंधर कलाकारों के साथ काम करने के अवसर मिले. रजनीगंधा की यूएसपी उसकी मध्यमवर्गीय परिवेश में बुनी कहानी को मिला बासु चटर्जी का निर्देशकीय ट्रीटमेंट था ताजगी भरे चेहरों के चलते दर्शकों को बिना किसी हिचक के लुभा गया.
आठवें दशक में बासु चटर्जी निर्देशित रजनीगंधा (1974) छोटी सी बात (1976) चितचोर (1976) स्वामी(1977) प्रियतमा (1977) खट्टा मीठा (1978) दिल्लगी (1978) मंजिल (1979) और बातों बातों में (1979) जैसी फिल्मों ने दर्शकों की रूचि को नई दिशा में मोड़ने का महत्वपूर्ण काम किया था. लेकिन नौवें दशक में मन पसंद (1980) अपने पराये (1980) जीना यहाँ (1980) हमारी बहू अलका (1980) तक आते आते दर्शक उनसे मुंह फेरने लगे थे. शौक़ीन (1982) बॉक्स ऑफिस पर उनकी आखिरी बड़ी सफलता थी. हालाँकि इससे पहले राजेश खन्ना नीतू सिंह अभिनीत चक्रव्यूह(1979) मिथुन चक्रवर्ती बिंदिया गोस्वामी अभिनीत प्रेम विवाह (1979) और हेमा मालिनी गिरीश कर्नाड अभिनीत रत्नदीप (1979) बुरी तरह असफल रही थीं.
बावजूद इन नाकामियों के अगले पंद्रह साल वे फिल्मों में निर्देशक के रूप में सक्रिय बने रहे. कोर्ट रूम ड्रामा टी वी फिल्म एक रुका हुआ फैसला (1986) ने उन्हें मान-सम्मान और अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड भले ही दिलाये, लेकिन पसंद अपनी अपनी (1983) लाखों की बात (1984) किरायेदार (1986) शीशा (1986) हमारी शादी (1990) किसी भी वर्ग के दर्शकों को पसंद नहीं आई. चमेली की शादी (1986) और कमला की मौत (1989) के जॉनर बेशक अलग थे पर निर्देशकीय पकड़ मजबूत थी. परन्तु 1997 में प्रदर्शित ‘त्रियाचरित्र’ और ‘गुदगुदी’ का हाल बेहाल रहा.
बासु चटर्जी की आखिरी दो फ़िल्में- ‘प्रतीक्षा’ और ‘कुछ खट्टा कुछ मीठा’ तो शायद ही किसी को याद हो; लेकिन दूरदर्शन पर उनके द्वारा निर्देशित तीन धारावाहिकों- रजनी (1985) कक्काजी कहिन (1988) और ब्योमकेश बख्शी (1993 और 1997) को अपार लोकप्रियता मिली. 1998 में भारत और बांग्लादेश के सहयोग से निर्मित होथात बृष्टि के अलावा उन्होंने तीन चार बंग्ला फिल्मों का निर्देशन भी किया. सुभाष घई की तरह बासु चटर्जी को भी अपनी फिल्मों के किसी दृश्य में दिखाई पड़ने का शौक था.
2007 में उन्हें आइफा ने लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाज़ा था. कमला की मौत के लिए उन्हें 1991 में फिल्म फेयर का बेस्ट स्क्रीनप्ले अवार्ड मिला था. 1978 में हेमामालिनी की माँ जया चक्रवर्ती द्वारा निर्मित ‘स्वामी’ के लिए बासु दा को बेस्ट निर्देशक का अवार्ड प्राप्त हुआ था. फिल्मों में मध्यमवर्ग के पैरोकार का अवसान निसर्ग की तूफानी हवाओं में एक कश्ती के ‘उस पार’ जाने के संघर्ष की निस्तब्ध खामोशी भी है और मानसून पूर्व की वर्षा में एक नदी का हमेशा के लिए सूख जाना भी है।

(लेखक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक और स्तंभकार हैं)
मोबाईल: 9425437902

(विनोद नागरजी की फेसबुक वाल से साभार)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *