संदीप राशिनकर
बेखौफ घर से निकले
घूमे फिरे
जहां चाहे टहले
न दुर्घटना की आशंका हो
ना हो धोखे का डर
ऐसा निष्कंटक, निरापद
जीवन पथ
क्या हर बच्चा पाएगा ?
ये कब हो पाएगा ??
बम गोलों धमाकों
चीख पुकार
निरंतर बजते
सायरनों के बिना
बचपन मेरा एकाध दिन
क्या चैन से सो पाएगा ?
ये कब हो पाएगा ??
पूछ रहा
बचपन हमसे
आंखों में आंखे डाले.
ट्रिगर दबाते बंदूक की
गोलियों की जगह
नली से उग आए कोपले
ये कब हो पाएगा ?
ये कब हो पाएगा ??
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