शिशिर उपाध्याय
पिता तो मेरे भी महान थे
सीधे- साधे भोले इंसान थे …
सदा सच की राह पर चले
गहन तम में दीप बन जले
जीवन दुपहर में खूब तपे
साँझ को शीतल हो ढले
गाँव के सच्चे किसान थे…
पिता तो मेरे भी महान थे,,
एक छोटे- मोटे कवि रहे
दिनकर जी सी छवि रहे
बड़े विद्वान तो थे नहीं
लेकिन छोटे से रवि रहे
कवि गोष्ठियों की जान थे
पिता तो मेरे भी महान थे…
सबको पढ़ाने शहर आए
खेती बिकी नई डगर आए
बच्चे आगे बढ़ें जीवन में
इसी चिंता में नजर आए
हमारे नीले आसमान थे
पिता तो मेरे भी महान थे
प्रातः काल उठ नहाते थे
फिर रघुपति राघव गाते थे
एक पुरानी साइकिल पर
गेहूँ पिसवाने जाते थे
परिवार के लिए वरदान थे
पिता तो मेरे भी महान थे ,,,
उन्होंने बनाया और हम बने
कच्चे मकान थे महल से तने
भौतिक सुखों से हुवे लबालब
सूखे पेड़ लहलहाकर हुए घने
बाबूजी इक कुशल बागबान थे
पिता तो मेरे भी महान थे…
सीधे -साधे भोले इंसान थे,
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