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न्याय, धर्म और सेवा की प्रतीक : लोकमाता अहिल्याबाई

डॉ. योगिता सिंह राठौड़

भारतभूमि वीरों, संतों और महापुरुषों की धरती रही है, जहाँ समय-समय पर ऐसी विभूतियाँ जन्म लेती रही हैं, जिन्होंने समाज को दिशा दी, धर्म को संरक्षित किया और मानवता की सेवा की। भारत के इतिहास में कुछ ऐसी वीरांगनाएं और कुशल शासिकाएं हुई हैं, जिन्होंने न केवल अपने राज्य को समृद्धि और न्याय से भर दिया, बल्कि संपूर्ण भारतीय संस्कृति और परंपरा को संरक्षण प्रदान किया। ऐसी ही एक विलक्षण महिला थीं, जिनका नाम सदैव श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है— लोकमाता अहिल्याबाई होलकर। उनकी ३००वी जयंती पर हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके जीवन, योगदान और विरासत को स्मरण करते हैं।

धर्मनिष्ठा में रची-बसी एक जीवनगाथा

31 मई 1725 को महाराष्ट्र के चौंडी गाँव में जन्मी अहिल्याबाई बचपन से ही धार्मिक, विवेकशील और परोपकारी प्रवृत्ति की थीं। एक सामान्य किसान की पुत्री होते हुए भी उनमें असाधारण नेतृत्व क्षमता और सहृदयता के गुण दिखाई देते थे। उनके जीवन की दिशा तब बदली जब मालवा के महान शासक मल्हारराव होलकर ने उन्हें अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार किया। पति खांडेराव की मृत्यु और फिर ससुर मल्हारराव के निधन के बाद, अहिल्याबाई ने एक अस्थिर और कठिन समय में मालवा की बागडोर संभाली। 1767 से 1795 तक उन्होंने होलकर राज्य की शासन किया। उन्होंने युद्ध कौशल और प्रशासनिक बुद्धिमत्ता का अद्भुत परिचय देते हुए राज्य को सुरक्षित, समृद्ध और शांतिपूर्ण बनाया।

उनका शासन न्यायप्रिय, प्रजावत्सल और धर्मनिष्ठ था। वे स्वयं प्रातःकाल दरबार लगाकर प्रजा की समस्याएं सुनती थीं और तत्काल न्याय करती थीं।

न्यायप्रियता की आदर्श मूर्ति

अहिल्याबाई का शासनकाल भारतीय इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय माना जाता है। उनके पति और फिर ससुर की मृत्यु के बाद, उन्होंने 1767 में होलकर राज्य की बागडोर अपने हाथों में ली। उस युग में जब स्त्रियों को राजनीति से दूर रखा जाता था, अहिल्याबाई ने यह साबित कर दिखाया कि न्याय और सुशासन के लिए नारी नेतृत्व भी सर्वोत्तम हो सकता है।

वे प्रतिदिन प्रजा की शिकायतें स्वयं सुनती थीं और बिना भेदभाव न्याय करती थीं। उनके शासनकाल में चोरी, शोषण और अत्याचार न के बराबर थे। उनका न्याय इतना निष्पक्ष और प्रभावी था कि दूर-दूर से लोग उनके राज्य में आकर बसने लगे।

धर्म और संस्कृति की संरक्षिका

अहिल्याबाई न केवल एक सफल शासिका थीं, बल्कि वे एक महान धर्मप्रेमी भी थीं। उनका संपूर्ण जीवन भारतीय संस्कृति और सनातन परंपराओं को संरक्षित करने में बीता। उन्होंने भारत के कोने-कोने में मंदिरों, घाटों, धर्मशालाओं, कुओं और जलाशयों का निर्माण करवाया। अहिल्याबाई केवल एक कुशल प्रशासक ही नहीं, अपितु एक महान धर्मप्रेमी और सांस्कृतिक संरक्षिका भी थीं। उन्होंने सम्पूर्ण भारतवर्ष में मंदिरों, घाटों, धर्मशालाओं और कुओं का निर्माण कराया।

उनके द्वारा बनवाए गए प्रमुख धार्मिक स्थल:

  • काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण
  • अयोध्या, मथुरा, द्वारका, बद्रीनाथ, रामेश्वरम, सोमनाथ जैसे तीर्थों में पूजा-व्यवस्था और संरचना का विकास
  • गंगा घाट, मथुरा, अयोध्या, सोमनाथ, रामेश्वरम, और बद्रीनाथ में अनेक निर्माण कार्य
  • गंगा घाटों का निर्माण और जीर्णोद्धार
  • यात्रियों के लिए विशाल धर्मशालाएँ और अन्नक्षेत्र की व्यवस्था
  • धर्म उनके लिए केवल कर्मकांड नहीं था, बल्कि सेवा, सहिष्णुता और समरसता का माध्यम था।
  • महेश्वर को उन्होंने राजधानी बनाया और इसे कला, संगीत और साहित्य का केंद्र बना दिया

सेवा भावना की सजीव प्रतिमा

अहिल्याबाई का जीवन परोपकार, त्याग और जनकल्याण की भावना से ओतप्रोत था। उन्होंने कभी राज्य के वैभव का दुरुपयोग नहीं किया। वे सादा जीवन जीती थीं, प्रजा के दुख-सुख में सहभागी बनती थीं, और अपने खर्च का अधिकांश भाग दान में देती थीं। उन्होंने महेश्वर को अपनी राजधानी बनाया, जहाँ आज भी उनके बनवाए गए घाट, मंदिर और भवन उनकी सादगी और सेवा भावना की गवाही देते हैं।

नारी सशक्तिकरण की आदर्श प्रेरणा

अहिल्याबाई उस काल में एक विधवा थीं जब स्त्रियों को सामाजिक और धार्मिक रूप से अनेक प्रतिबंधों में बाँध दिया जाता था। बावजूद इसके, उन्होंने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति, दूरदर्शिता और साहस से वह कर दिखाया जो अनेक पुरुष शासक भी नहीं कर सके। उनका जीवन संदेश देता है कि नारी केवल परिवार की धुरी नहीं, बल्कि राष्ट्र की भाग्यविधाता भी हो सकती है।

मृत्यु और विरासत

अहिल्याबाई होलकर का निधन 13 अगस्त 1795 को हुआ, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवंत है। उन्हें “राजमाता” की संज्ञा दी गई और भारतीय इतिहास में वे एक आदर्श नारी शासन की मिसाल बन गईं। उनकी जीवनशैली, तपस्या और सेवा भावना आज भी प्रेरणा देती है।

अहिल्याबाई होलकर केवल एक रानी नहीं थीं, वे जननी थीं — एक ऐसे युग की, जिसमें धर्म, न्याय और सेवा का त्रिवेणी संगम था। उनके आदर्श, उनका शासन और उनका जीवन आज भी न केवल प्रेरणा देता है, बल्कि यह भी याद दिलाता है कि सच्चा नेतृत्व वह है जो प्रजा के हित में, धर्म के मार्ग पर और सेवा के भाव से चलता है। अहिल्याबाई होलकर का जीवन एक प्रेरणास्रोत है — साहस, सेवा और न्याय का प्रतीक। उनकी जयंती पर हमें यह स्मरण करना चाहिए कि सत्प्रशासन, नारी सशक्तिकरण और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के क्षेत्र में उनका योगदान अमूल्य है।

आज जब हम उन्हें स्मरण करते हैं, तो उनके मूल्यों को आत्मसात करना ही उनकी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

इस जयंती पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम भी लोकमाता के आदर्शों को अपनाएँ और एक ऐसे समाज के निर्माण में योगदान दें, जहाँ न्याय, धर्म और सेवा सर्वोपरि हों।

जय लोकमाता अहिल्या!

वंदे भारतमाता की यह अमर पुत्री!

प्राचार्य

माँ नर्मदा कॉलेज ऑफ एजुकेशन धामनोद

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