डॉ. योगिता सिंह राठौड़
भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना गया है। गुरु केवल एक शिक्षक नहीं होता, बल्कि वह जीवन रूपी नैया का सारथी होता है, जो अपने शिष्य को अज्ञान के अंधकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाता है। यहाँ गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान माना गया है। गुरु वह दीप है, जो शिष्य के भीतर निहित अज्ञानता के अंधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश फैलाता है। गुरु पूर्णिमा ऐसा ही एक पावन पर्व है, जो गुरु-शिष्य परंपरा की गरिमा और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की स्मृति दिलाता है। इस संदर्भ में यह पंक्ति — “जहाँ गुरु, वहाँ दिशा; जहाँ दिशा, वहाँ सफलता” — गुरु के महत्व को गहराई से स्पष्ट करती है।
गुरु पूर्णिमा का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व:
गुरु पूर्णिमा, आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है। यह दिन वेदों के प्रणेता और अद्वैत वेदांत के महान आचार्य महर्षि वेदव्यास की जयंती के रूप में मनाया जाता है। उन्होंने महाभारत जैसे महाग्रंथ की रचना की और वेदों को विभाजित कर उन्हें व्यवस्थित किया, जिससे ज्ञान की धारा जनसाधारण तक पहुँच सकी। इस दिन शिष्य अपने गुरुओं का पूजन कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। यही नहीं, योग परंपरा में भी यह दिन विशेष माना गया है क्योंकि इसी दिन भगवान शिव ने आदियोगी के रूप में सप्तर्षियों को ज्ञान प्रदान किया था।
गुरु का अर्थ और महत्व:
संस्कृत में ‘गुरु’ का अर्थ होता है — ‘गु’ अर्थात अंधकार और ‘रु’ अर्थात प्रकाश। यानी जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए, वही गुरु है। जीवन में दिशा का अभाव व्यक्ति को भ्रम, भय और असफलता की ओर ले जाता है। वहीं, जब मार्गदर्शक के रूप में एक योग्य गुरु मिल जाए, तो वही व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक बना सकता है।
भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य संबंध:
गुरु केवल किताबी ज्ञान देने वाला शिक्षक नहीं होता, वह जीवन का पथप्रदर्शक, मार्गदर्शक और प्रेरणास्त्रोत होता है। राम को विश्वविजयी बनाने वाले गुरु वशिष्ठ हों या चंद्रगुप्त को सम्राट बनाने वाले चाणक्य, हर सफल शिष्य के पीछे एक महान गुरु की भूमिका रही है। भारतीय संस्कृति में ‘गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः’ जैसे श्लोक इस संबंध की गहराई को दर्शाते हैं।
गुरु द्वारा प्राप्त दिशा:
गुरु हमें न केवल शैक्षणिक ज्ञान देते हैं, बल्कि नैतिकता, अनुशासन, सहिष्णुता और आत्मनिर्भरता जैसे गुणों से भी परिचित कराते हैं। वे हमारी क्षमताओं को पहचानते हैं और उन्हें सही मार्ग प्रदान करते हैं।
महाभारत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म और धर्म की जो दिशा दिखाई, उसी के कारण वह महायोद्धा बन सका।
दिशाहीनता का दुष्परिणाम:
जीवन में यदि सही मार्गदर्शन न हो, तो ज्ञान होते हुए भी उसका सदुपयोग नहीं हो पाता। दिशाहीन व्यक्ति लक्ष्य के बिना भटकता है, और अंततः असफलता का शिकार होता है। ऐसे में गुरु का मार्गदर्शन एक प्रकाश स्तंभ की तरह होता है, जो न केवल राह दिखाता है, बल्कि उस पर चलना भी सिखाता है।
गुरु पूर्णिमा का उत्सव:
इस दिन विद्यालयों, आश्रमों और धार्मिक स्थलों पर विशेष कार्यक्रम होते हैं। विद्यार्थी और अनुयायी अपने गुरुओं के चरणों में पुष्प अर्पित कर कृतज्ञता प्रकट करते हैं। यह दिन न केवल अध्यात्म से जुड़ा है, बल्कि यह शिक्षक और शिष्य दोनों के लिए आत्मचिंतन और नवीनीकरण का भी अवसर होता है।
गुरु पूर्णिमा का संदेश:
गुरु पूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं, बल्कि श्रद्धा और समर्पण का प्रतीक है। यह दिन हमें अपने जीवन के उन गुरुओं के प्रति आभार व्यक्त करने का अवसर देता है, जिनके कारण हम जीवन की कठिन राहों में सही निर्णय ले सके।
जीवन की दिशा और सफलता का आधार एक सच्चे गुरु का मार्गदर्शन होता है। जिस प्रकार बिना ध्रुव तारे के नाविक समुद्र में खो सकता है, उसी प्रकार बिना गुरु के व्यक्ति जीवन रूपी सागर में भटक सकता है। गुरु पूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है, जो हमें बताती है कि ज्ञान और मार्गदर्शन का महत्व क्या होता है। आज के बदलते समय में जब जीवन दिशाहीन होता जा रहा है, गुरु ही वह दीपक है जो जीवन को सही दिशा देता है। वर्तमान युग में भी गुरु की भूमिका उतनी ही महत्वपूर्ण है। शिक्षा प्रणाली में शिक्षक केवल पाठ्यक्रम पढ़ाने वाले नहीं, बल्कि बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में सहायक होते हैं। आज जब नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है, गुरु का कर्तव्य और भी बढ़ गया है वह बच्चों में चरित्र, अनुशासन और संवेदना जैसे गुणों को विकसित करे।
इसलिए आवश्यक है कि हम गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा और आभार को बनाए रखें और इस पवित्र परंपरा को आगे बढ़ाते रहें।
अतः, वास्तव में — “जहाँ गुरु, वहाँ दिशा; जहाँ दिशा, वहाँ सफलता।”
लेखक के ये अपने विचार हैं।
प्राचार्य
माँ नर्मदा कॉलेज ऑफ एजुकेशन धामनोद
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