सुरेश तन्मय
तर्क वितर्क कुतर्कों के सँग, खड़े हो गए विद्रोही
उनके मन की हुई, जिन्होंने ही विषबेलें ये बोई
नरपिशाच उन नपुंसकों ने, हत्या करी निहत्थों की,
साजिश में इनके पीछे, इनमें से ही घर का कोई।
सुख शांति कब पची, बताओ असुर जिहादी नागों को
कपटी कालनेमियों वेशधारी, इन काले कागों को
जिनसे हो बदनाम कौम, सबको ये बात समझनी है,
समूल मिटे आतंक, तोड़ दें हिंसक खूनी धागों को।
आस्तीनों में छिपे सँपोले, रह-रह फन फुँफकार रहे
जनमानस में नई चेतना देख, विवश चित्कार रहे
हत्याओं पर संवेदन की जगह, सियासत जारी है,
घर के भेदी इधर-उधर, जाकर करते अय्यारी है।
जो जिस भाषा में समझे, वैसे इनको समझाना है
अत्याचारी के खिलाफ, हाथों में शस्त्र उठाना है
समूल मिटा दें इन्हें और, इनके पोषक गद्दारों को,
छिपे विघ्नसंतोषी चेहरों को भी, सबक सिखाना है।
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