समारोह में साथ पारम्परिक बहुवर्णी वाद्य प्रदर्शनी और शिल्प, व्यंजन मेला भी
भोपाल। मध्यप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग के लिए जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी द्वारा गणतंत्र के 40वें लोकोत्सव ’लोकरंग’ का आयोजन 26 से 30 जनवरी तक रवीन्द्र भवन परिसर, भोपाल में किया गया है। लोकरंग में 27 से 29, जनवरी, 2025 दोपहर 02 बजे से विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन एवं प्रदर्शन भी किया जायेगा। समारोह पारम्परिक नृत्य, गायन-वादन, शिल्प और व्यंजन मेला संयोजित किया गया है। समारोह में करीब 300 से अधिक शास्त्रीय, लोक और जनजातीय पारम्परिक वाद्ययंत्रों को प्रदर्शित करती बहुवर्णी वाद्य प्रदर्शनी का भी संयोजन गया है। इस प्रदर्शनी में 24 से अधिक राज्य एवं 6 विदेशों के वाद्यों को प्रदर्शित किया गया है। लोकवार्ता में संस्कृति विभाग के प्रकाशन, परम्परा में वाद्य विषयक संगोष्ठी भी आयोजित की जा रही है। कार्यक्रम की शुरूआत जनजातीय कार्य मंत्री डॉ. कुंवर विजय शाह द्वारा कलाकारों के स्वागत से की गई।


लोकराग – देशराग
‘लोकराग’ अंतर्गत 27 से 29, जनवरी तक प्रतिदिन दोपहर 02 बजे से आंचलिक गायन की प्रस्तुति दी जायेगी। जिसमें 28 जनवरी को बुन्देली लोक गायन की प्रस्तुति दी गई। इस प्रस्तुति में सुश्री कविता शर्मा, छतरपुर, श्री ऋषि विश्वकर्मा, सागर, सुश्री आरती शाक्य, भोपाल, श्री माधव सिंह, भोपाल एवं अन्य साथी लोक भजन, विवाह, सोहर एवं अन्य गीत की प्रस्तुति दी। वहीं सायं 06 बजे से ‘देशराग’ अंतर्गत 28 जनवरी को श्री जस्सू मांगणियार एवं साथी, जयपुर द्वारा मांगणियार गायन प्रस्तुत किया गया।
धरोहर – देशान्तर
‘धरोहर’ गतिविधि में मध्यप्रदेश एवं अन्य 16 राज्यों के जनजातीय एवं लोक नृत्यों का प्रदर्शन किया जा रहा है। 27 से 29 तक प्रतिदिन दोपहर एवं सायं प्रस्तुति में इन नृत्यों की प्रस्तुतियां दी जायेगी। श्री राजेंद्र महापात्रा एवं साथी, उड़ीसा द्वारा शंखध्वनि की प्रस्तुति दी। शुभ कार्य की शुरूआत के दौरान उड़ीसा एवं अन्य जगह शंख ध्वनि का उद्घोष किया जाता है। उड़ीसा में शंख ध्वनि के कलाकार एक साथ दो शंख, शहनाई, तासा एवं मजीरा बजाते हैं।
श्री रूप सिंह एवं साथी, राजस्थान चकरी लोक नृत्य की प्रस्तुति दी। चकरी नृत्य, राजस्थान का एक लोक नृत्य है. यह नृत्य हाड़ौती क्षेत्र के बूंदी, कोटा, और बारां ज़िलों में किया जाता है। यह नृत्य महिलाओं द्वारा किया जाता है। इस नृत्य में तेज़ रफ़्तार से चक्कर काटे जाते हैं। युवतियां घाघरा पहन विवाह और त्योहारों पर यह नृत्य करती हैं।
श्री बचन सिंह राणा एवं साथी, उत्तराखंड द्वारा जौनसारी लोक नृत्य की प्रस्तुति दी। जौनसारी लोक नृत्य, उत्तराखंड के जौनसार बावर क्षेत्र की जौनसारी जनजाति का पारंपरिक नृत्य है। यह नृत्य त्योहारों और खास मौकों पर किया जाता है। जौनसारी जनजाति की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को बराड़ा नाटी नृत्य के ज़रिए संरक्षित किया जाता है। इस नृत्य में पुरुष और महिलाएं दोनों भाग लेते हैं। जिसे पारंपरिक लोक संगीत की लय पर किया जाता है। यह नृत्य जीवन और प्रकृति का उत्सव है।
श्री मुकेश यादव एवं साथी, उत्तरप्रदेश द्वारा फरवाही लोक नृत्य किया जा रहा है। फ़रवाही, एक भारतीय लोक नृत्य है। यह एक आदिकालीन परंपरागत नृत्य शैली है। फ़रवाही नृत्य में टिमकी (तासा), नगाड़ा, और झाल का प्रयोग किया जाता है। इस नृत्य में कलाकार कुर्ता एवं गमछा पहनते हैं। फ़रवाही नृत्य को देखने से लगता है कि इसका चलन वीरगाथा काल में सैनिकों के मनोरंजन को ध्यान में रखकर शुरू किया गया था।
श्री दत्ता भोएर, एवं साथी द्वारा महाराष्ट्र का लावणी नृत्य एवं कोली नृत्य प्रस्तुत किया गया। लावणी भारत में प्रचलित संगीत की एक शैली है। लावणी पारंपरिक गीत और नृत्य का एक संयोजन है, जो विशेष रूप से ढोलकी की थाप पर किया जाता है। लावणी लय के लिए प्रसिद्ध है। लावणी ने मराठी लोक रंगमंच के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। महिला कलाकारों द्वारा लुगाड़े साड़ी का प्रयोग कर यह नृत्य किया जाता है। साथ ही इसमें गाने तेज गति से गाए जाते हैं।
समारोह में श्री सुकमन उइके एवं साथी, छत्तीसगढ़ द्वारा मुरिया जनजातीय ककसार गेड़ी नृत्य की प्रस्तुति दी। गेड़ी नृत्य, छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र का पारंपरिक नृत्य है। यह नृत्य, बांस की लकड़ियों से बनाए गए गेड़ी पर किया जाता है। सावन के महीने में हरेली के त्योहार पर किया जाता है। यह नृत्य, संतुलन पर आधारित है। नृत्य में दो नर्तक टिमकी बजाते हैं। गेड़ी पर आठ से दस या इससे ज़्यादा युवक चढ़कर नृत्य करते हैं।
श्री लिंगाहिया बेसु कमसाले एवं साथी, कर्नाटक द्वारा कमसाले नृत्य की प्रस्तुति दी गई। कमसाले, कर्नाटक का एक लोक नृत्य है। यह नृत्य भगवान शिव की महिमा में किया जाता है। इसे बीसू कामसाले के नाम से भी जाना जाता है। नृत्य में नर्तक एक-दूसरे पर कामसाले बजाकर लयबद्ध ध्वनि पैदा करते हैं। साथ ही धार्मिक त्योहारों और मेलों के दौरान किया जाता है।
श्री राकेश एवं साथी, आंध्रप्रदेश द्वारा बोनालू नृत्य की प्रस्तुति दी गई। बोनालू त्योहार के अवसर पर किया जाता है। यह एक पारंपरिक नृत्य है जो आंध्रप्रदेश एवं तेलंगाना के कई स्थानों में किया जाता है। बोनालू त्योहार आंध्रप्रदेश का एक पारंपरिक हिंदू त्योहार है। यह त्योहार देवी महाकाली को समर्पित है। बोनालू त्योहार आषाढ़ महीने में मनाया जाता है। इस त्योहार में महिलाएं पारंपरिक पोशाक पहनती हैं और देवी को बोनम चढ़ाती हैं। बोनालू शब्द तेलुगु शब्द ‘भोजनालू’ से बना है जिसका मतलब है भोजन या प्रसाद।
श्री अंदासी नारायण एवं साथी, तेलंगाना द्वारा दप्पू नृत्य की प्रस्तुति दी गई। दप्पू नृत्य, आंध्रप्रदेश एवं तेलंगाना का एक लोकप्रिय नृत्य है। यह नृत्य जनजाति समुदाय द्वारा किया जाता है। दप्पू नृत्य का नाम तंबूरा जैसे ड्रम ‘दप्पू’ से लिया गया है। इस ड्रम से निकलने वाली ध्वनि के कारण ही इस नृत्य का नाम दप्पू पड़ा।
श्री मनोज एवं साथी, हरियाणा द्वारा घूमर / फाग नृत्य की प्रस्तुति गई। घूमर और फाग, हरियाणा के लोकप्रिय नृत्य हैं। घूमर नृत्य में नर्तकियां गोलाकार घूमती हैं और गाती हैं. वहीं, फ़ाग एक मिश्रित नृत्य है जिसे पुरुष और महिलाएं दोनों करते हैं। घूमर नृत्य में नर्तकियां गोलाकार घूमती हैं और ताली बजाती हैं। यह नृत्य होली, गणगौर पूजा और तीज जैसे त्योहारों पर किया जाता है। इस नृत्य में गाए जाने वाले गीत व्यंग्य और हास्य से भरे होते हैं.फ़ाग नृत्य हरियाणा का एक मिश्रित लोक नृत्य है, जो फाल्गुन के महीने में किया जाता है।
चाऊ सारथाम नामचूम एवं साथी, अरूणाचल प्रदेश द्वारा मोर नृत्य की प्रस्तुति दी गई। मयूर नृत्य खामटी जनजाति द्वारा किया जाता है। यह अरुणाचल प्रदेश में खामटी जनजाति का एक प्रमुख नृत्य है। ऐसा माना जाता है कि, जो आधे मानव शरीर वाले मोर नामक पौराणिक पक्षियों के अनुग्रहपूर्ण नृत्य को दर्शाता है जो हिमालय, किंगनारा (नर) और किंगनारी (नारी) में उपस्थित थे। साहित्य के अनुसार मयूर की उत्पत्ति प्रागैतिहासिक भारत में हुई थी। वे स्वयं भगवान बुद्ध के कुछ प्रवचनों में दिखाई देते हैं। यह नृत्य भारी बारिश और बाढ़ के कारण 700 रातों के बिछड़ने के बाद मोर के सुखद पुनर्मिलन का वर्णन करता है। यह किंगनारा (नर) और किंगनारी (नारी) के सच्चे प्रेम का एक लोकप्रिय प्रतीक भी है। प्राचीन इतिहास है, जिसे ताई लोगों की नृत्य मंडलियों द्वारा जीवित रखा गया है।
श्री सुजीत देव वर्मा एवं साथी त्रिपुरा द्वारा ममीता / मोसोक सुरमनी नृत्य की प्रस्तुति दी। ममिता नृत्य भारत के पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा का एक आकर्षक पारंपरिक नृत्य है। यह नृत्य ममिता महोत्सव का एक अभिन्न अंग है, जिसे त्रिपुरी लोग फसल उत्सव के रूप में मनाते हैं। ममिता उत्सव आमतौर पर अक्टूबर और नवंबर के महीनों में फसल के मौसम के अंत का प्रतीक है।
सुश्री हिलाला रहमान एवं साथी, जम्मू-कश्मीर द्वारा रौफ एवं डोंगरी नृत्य की प्रस्तुति दी। रौफ़, जम्मू और कश्मीर का लोक नृत्य है। यह नृत्य मुख्य रूप से महिलाएं करती हैं। नृत्य में रंगीन वेशभूषा पहनी जाती है। इसे स्थानीय भाषा में चकरी भी कहा जाता है। इसे आमतौर पर गांवों में ‘रूफ़’ और शहरों में ‘रो’ के रूप में बोला जाता है।
डोगरी नृत्य जम्मू के डुग्गर क्षेत्र में किया जाने वाला नृत्य है। आमतौर पर कलाकारों के एक समूह द्वारा प्रस्तुत किया जाता है, जिसका मुख्य कलाकार गीत गाता है और साथ ही नृत्य भी करता है, जबकि अन्य लोग बैठे हुए होते हैं और ड्रम और चिमटा की धुन बजाते हैं। इस में पुरुष और महिलाएं या केवल महिलाएं रंगीन पारंपरिक परिधानों में किसी प्रसिद्ध लोक गीत के संगीत पर समूह में नृत्य करती हैं।
कोरकू जनजातीय गदली नृत्य की प्रस्तुति श्री दिनेश कस्देकर एवं साथी, श्री झंगु बारसकर एवं साथी, बैतूल की प्रस्तुति दी गई। मध्यप्रदेश की कोरकू जनजाति में नृत्य की समृद्ध परम्परा है। कोरकू जनजाति में विभिन्न त्योहारों-पर्व-अनुष्ठानों एवं अन्य खुशियों के अवसरों पर गदली-थापटी, चिल्लूड़ी, दशहरा, ढांढल, ठाठ्या आदि नृत्य किये जाते हैं। कोरकू नृत्य की वेशभूषा अत्यधिक सादगीयुक्त और सुरूचिपूर्ण होती है। पुरूष सफेद रंग पसंद करते हैं, सिर पर लाल पगड़ी और कलंगी पुरूष नर्तक खास तौर से लगाते हैं। स्त्रियाँ लाल, हरी, नीली, पीली रंग की किनारी वाली साड़ी पहनती है। स्त्री के एक हाथ में चिटकोला तथा दूसरे हाथ में रूमाल और पुरूषों के हाथ में घुंघरूमाला तथा पंछा होता है। कोरकू नृत्यों में ढोलक की प्रमुख भूमिका होती है। ढोलक की लय और ताल पर कोरकू हाथों और पैरों की विभिन्न मुद्राओं को बनाते हुए गोल घेरे में नृत्य करते हैं।
श्री प्रताप सिंह एवं साथी, मध्यप्रदेश द्वारा भील जनजातीय भगोरिया नृत्य की प्रस्तुति दी। मध्यप्रदेश के झाबुआ और अलीराजपुर क्षेत्र में निवास करने वाली भील जनजाति का भगोरिया नृत्य, भगोरिया हाट में होली तथा अन्य अवसरों पर भील युवक-युवतियों द्वारा किया जाता है। फागुन के मौसम में होली से पूर्व भगोरिया हाटों का आयोजन होता है। भगोरिया नृत्य में विविध पदचाप समूहन पाली, चक्रीपाली तथा पिरामिड नृत्य मुद्राएं आकर्षण की केन्द्र होती हैं। रंग-बिरंगी वेशभूषा में सजी-धजी युवतियों का श्रृंगार और हाथ में तीरकमान लिये नाचना ठेठ पारम्परिक व अलौकिक सरंचना है।
श्री जुगल किशोर नामदेव एवं साथी-सागर द्वारा मध्यप्रदेश बधाई एवं नौरता नृत्य की प्रस्तुति दी। बुन्देलखण्ड अंचल में जन्म विवाह और तीज-त्यौहारों पर बधाई नृत्य किया जाता है। मनौती पूरी हो जाने पर देवी-देवताओं के द्वार पर बधाई नृत्य होता है। इस नृत्य में स्त्रियाँ और पुरुष दोनों ही उमंग से भरकर नृत्य करते हैं। बूढ़ी स्त्रियाँ कुटुम्ब में नाती-पोतों के जन्म पर अपने वंश की वृद्घि के हर्ष से भरकर घर के आंगन में बधाई नाचने लगते हैं। नेग-न्यौछावर बांटती हैं। मंच पर जब बधाई नृत्य समूह के रूप में प्रस्तुत होता है, तो इसमें गीत भी गाये जाते हैं। बधाई के नर्तक, चेहरे के उल्लास, पद संचालन, देह की लचक और रंगारंग वेशभूषा से दर्शकों का मन मोह लेते हैं। इस नृत्य में ढपला, टिमकी, रमतूला और बांसुरी आदि वाद्य प्रयुक्त होते हैं।
बुन्देलखण्ड अंचल में नवरात्रि के अवसर पर कुँवारी कन्याएं इसका आयोजन करती हैं। यह पूरे नौ दिन तक चलता है। घर के बाहर एक अलग स्थान पर नौरता बनाया जाता है। गाँव में रंगों की जगह गेरू, सेम के पत्तों का रंग, हल्दी तथा छुई का प्रयोग मुख्य रंग इतने ही होते हैं। नौरता में सुअटा, चंदा सूरज तथा नीचे रंगीन लाइनें बनायी जाती हैं। कई घरों में नौरता जहाँ बनता है। वहाँ पर आकर्षक बाउण्ड्री बनायी जाती है। नौरता पर नौ दिन अलग-अलग ढंग से चौक बनाये जाते हैं। कुँवारी कन्यएं अच्छे जीवनसाथी की मनोकामना के लिए नौरता नृत्य करती हैं।
श्री लाल सिंह मरकाम एवं साथी, डिण्डोरी द्वारा बैगा जनजातीय करमा नृत्य की प्रस्तुति दी। करमा नृत्य बैगा जनजाति का प्रमुख लोक नृत्य है। इस नृत्य में बैगा अपने कर्म को नृत्य-गीत के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। इसी कारण इस नृत्य-गीत को करमा कहा जाता है। करमा नृत्य विजयदशमी से वर्षा के प्रारंभ होने तक चलता है। नृत्य में बैगा पुरुष बीच में खड़े होकर वाद्ययंत्र बजाते हैं और महिलाएं गोल घेरे बनाकर एक दूसरे के घूम-घूम कर गीत गाते हुए नृत्य करती हैं एवं हाथ में ठिसकी (वाद्ययंत्र) होता है।
श्री शिवम डाण्डोलिया एवं साथी-छिंदवाडा द्वारा भारिया जनजातीय भड़म नृत्य प्रस्तुत किया। भारिया जनजाति के परम्परागत नृत्यों में भड़म, सैताम, सैला और अहिराई प्रमुख हैं। भड़म नृत्य के कई नाम प्रचलित है। इसे गुन्नु साही भडनी, भडनई, भरनोट या भंगम नृत्य भी कहते हैं। विवाह के अवसर पर किया जाने वाला यह नृत्य भारियाओं का सर्वाधिक प्रिय नृत्य है। भड़म समूह नृत्य है। ढोल टिमकी वादक पहले घेरा बनाते हैं घेरे के बीच का एक नर्तक लकड़ी उठाकर दोहरा गाता है। दोहरा के अंतिम शब्द से वाद्य बजना शुरू हो जाते हैं। ढोलक की थाप और टिमकी की ताल पहले मंद गति से उठती है और तीव्र से तीव्रतर होती जाती है। नृत्य की गति भी वाद्यों के साथ बढ़ती है। ढोल वादकों के पैरा समानान्तर गति में धीरे-धीरे सरकते हैं। टिमकी वादक ठुमकते हुए अर्द्घवक्र गतियां बनाकर घेरे में घूमते हैं। घेरे के बीच के नर्तक तेज गति से पैर कमर और हाथों को गति देकर नाचते हैं। बीच-बीच में किलकाली मारते हैं। चरम पर वाद्य-नृत्य थम जाता है। फिर एक नर्तक दोहरा कहता है और यही क्रम चलता जाता है। ढोल, टिमकी और झांझ की समवेत ध्वनि दूर गरजनगे वाले बादलों की गंभीर घोष की तरह सुनाई देती है। थोड़े-थोड़े विश्राम के साथ नृत्य रात भर चलता है।
सुश्री कृष्णा वर्मा एवं साथी-उज्जैन द्वारा मध्यप्रदेश मटकी नृत्य की प्रस्तुति दी। मालवा में मटकी नाच का अपना अलग परम्परागत स्वरूप है। विभिन्न अवसरों पर मालवा के गाँव की महिलाएँ मटकी नाच करती है। ढोल या ढोलक को एक खास लय जो मटकी के नाम से जानी जाती है, उसकी थाप पर महिलाएँ नृत्य करती है। प्रारम्भ में एक ही महिला नाचती है, इसे झेला कहते हैं। महिलाएँ अपनी परम्परागत मालवी वेशभूष में चेहरे पर घूँघट डाले नृत्य करती हैं। नाचने वाली पहले गीत की कड़ी उठाती है, फिर आसपास की महिलाएँ समूह में कड़ी को दोहराती है। नृत्य में हाथ और पैरों मेंसंचालन दर्शनीय होता है। नृत्य के केद्र में ढोल होता है। ढोल पर मटकी नृत्य की मुख्य ताल है। ढोल किमची और डण्डे से बजाया जाता जाता है। मटकी नाच को कहीं-कहीं आड़ा-खड़ा और रजवाड़ी नाच भी कहते हैं।
श्री परशराम खण्डेलवाल एवं साथी, हरदा द्वारा काठी नृत्य प्रस्तुति दी। काठी मध्यप्रदेश के निमाड़ का एक प्रसिद्ध लोकनृत्य-नाट्य है। पार्वती की तपस्या से सम्बन्धित काठी मातृपूजा का त्यौहार है। नर्तकों का श्रृंगार अनूठा होता है गले से लेकर पैरों तक पहना जाने वाला बागा या बाना जो लाल चोले का घेरेदार बना होता है। काठी नर्तक कमर में एक खास वाद्य यंत्र ‘ढांक्य’ बांधते हैं, जिसे मासिंग के डण्डे से बजाया जाता है। काठी का प्रारम्भ देव प्रबोधिनी एकादशी से होता है और विश्राम महाशिवरात्रि को।
‘देशान्तर’ गतिविधि में 27 से 29 जनवरी तक क्रमशः पेरिस, लेबनान, जर्मनी के सांस्कृतिक दलों द्वारा नृत्य प्रस्तुतियाँ दी जायेगी। 28 जनवरी को लेबनान के बैली नृत्य की प्रस्तुति दी गई।
शिल्प मेला
लोकरंग में विविध प्रकार के शिल्पों के मेले की एक विशिष्ट पहचान है। इस बार पारम्परिक शिल्पियों द्वारा शिल्प मेले में 250 स्टॉलों से पारम्परिक शिल्पों की बिक्री व प्रदर्शन किया जा रहा है।
स्वाद
लोकरंग के विशाल परिसर में एक आकर्षण व्यंजन मेले का भी है। इस बार 15 स्टॉल में कोरकू, बैगा, कोल, भील जनजातीय और मालवा, बुन्देली, बघेली एवं अन्य क्षेत्रीय व्यंजनकार भाग लेकर अपने व्यंजनों को प्रस्तुत कर रहे हैं।
उल्लास
इस गतिविधि अंतर्गत 27 से 29 तक प्रतिदिन दोपहर 02 बजे से बच्चों के लिए कठपुतली कला एवं युद्ध कलाओं का प्रदर्शन किया जा रहा है, जिसमें कलरीपायट्टू, अखाड़ा, गतका, पाइका एवं मर्दानी खेल की प्रस्तुति का संयोजन किया जा रहा है।
कलरीपयट्टु
श्री पी मरूगन एवं साथी, केरल द्वारा कलरीपयट्टू की प्रस्तुति दी गई। दक्षिणी राज्य केरल की यह एक युद्ध कला है। संभवतः सबसे पुरानी युद्ध पद्धतियों में से एक है। कलरीपयट्टू शब्द, दो शब्दों की संधि है, पहला कलारी (मलयालम शब्द) जिसका अर्थ विद्यालय या व्यायामशाला है, तथा दूसरा पयट्टू का अर्थ अर्थ युद्ध-व्यायाम है।
अखाड़ा
वहीं श्री राजकुमार रायकवार एवं साथी, सागर के कलाकारों द्वारा अखाड़ा की प्रस्तुति दी गई। भारत में लगभग सभी राज्यों में युद्ध कौशल को बढ़ावा देने के लिए अखाड़ा बनाए गए हैं। बुंदेलखंड के अखाड़ों की एक लम्बी परम्परा रही है। जिसमें लाठी से खेल, शारिरिक व्यायाम एवं ढाल-तलवार से युद्ध की कला को प्रदर्शित किया जाता है।
गतका
श्री दमनजीत सिंह एवं साथी, गुरूदासपुर द्वारा गतका युद्ध कला की प्रस्तुति दी। “सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊं, तबै गोबिंद सिंह नाम कहाऊं”। सिखों के दसवें गुरु श्री गोविंद सिंह जी ने अपने अनुयाइयों से यह आह्वान किया था। अपने राज्य और दीन-दुखियों की रक्षा के लिए ‘गतका’ मार्शल आर्ट की शुरुआत हुई थी।
पाइक
प्रभात कुमार महतो एवं साथी, झारखंड द्वारा पाइका कला की प्रस्तुति दी गई। पाइक या पाइका (ओशिशा) का एक युद्ध करने वाला समुदाय है, जो भारत के ओडिशा राज्य में देखने को मिलता है। उड़िया शब्द पाइका या पाइको, पदाटिका से लिया गया है, जिसका अर्थ है पैदल सैनिक। वे मूल रूप से सैन्य अनुचरों का एक वर्ग थे, जिन्हें 16वीं शताब्दी से ओडिशा के राजाओं सेवा प्रदान करने के लिए भर्ती किया गया था।
मर्दानी खेल
श्री विनोद सालोखे एवं साथी, महाराष्ट्र द्वारा मर्दानी खेल की प्रस्तुति दी। मर्दानी खेल और बोथाटी महाराष्ट्र की सशस्त्र भारतीय मार्शल आर्ट है। वे विशेष रूप से अपने विशिष्ट भारतीय पट्टा (तलवार) और वीटा (रस्सी वाला भाला) के उपयोग के लिए जाने जाते हैं। घाटियों और गुफाओं से युक्त एक पहाड़ी क्षेत्र के निवासी कुशल घुड़सवार बन गए, जिन्होंने युद्ध के दौरान हल्के कवच और घुड़सवार इकाइयों का उपयोग करना पसंद किया।
थांगटा
एल.जैक्सन सिंह एवं साथी, मणिपुर द्वारा थांग-टा की प्रस्तुति दी जा रही है। यह मणिपुर में प्रचलित एक युद्ध कला (मार्शल आर्ट) है जिसे ह्यूएन लालोंग के नाम से भी जाना जाता है। थांग का शाब्दिक अर्थ तलवार और टा का शाब्दिक अर्थ भाला होता है। यह युद्ध कौशल और पूजा के लिये समर्पित है। इस युद्ध कला का अभ्यास मणिपुर के मैतेई समुदाय के लोगों द्वारा किया जाता है।
कठपुतली कला
द पपेटेरियंस ग्रुप, मुंबई के हाशिम और संज्ञा, ओझा द्वारा तारा की कल्पना, एक दोस्त की खोज, नानी की कहानी को बोलती, धागा और अन्य शैली के माध्यम से प्रदर्शित किया।
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