विनय उपाध्याय
वरिष्ठ कला समीक्षक-उद्घोषक
पुण्य सलिला नर्मदा के तट पर बसा ओंकार द्वीप एक बार फिर आध्यात्मिक लोक के आलोक में जाग रहा है। महादेव ज्योतिर्लिंग के इस पवित्र धाम में साधना और सिद्धि के प्रतीक, भारत की सांस्कृतिक अस्मिता के प्रतीक आदिशंकराचार्य की स्मृति का प्रसंग अपनी आनुष्ठानिक पवित्रता में अद्वैत का एक विराट समागम बन रहा है। ये वही ओंकारधाम है, जहाँ तपश्चर्या में लीन गुरू गोविन्दपाद और सांसारिक रहस्य को जानने की प्रश्नाकुलता से भरे बालक शंकर का महासंयोग घटित हुआ था। अद्वैत वेदांत दर्शन के ध्वजाधारी शंकर ने भारत भूमि को एक नए सांस्कृतिक स्वर्ग में जागने का मंत्र दिया था। वैशाख शुक्ल पंचमी आदिशंकराचार्य के अवतरण का मुहूर्त है। 28 अपै्रल से 2 मई का अंतराल शंकर के एकात्म दर्शन के उजास में जीवन, प्रकृति और संस्कृति को अनेक संदर्भों में देखने तथा संवाद और विचार की नई हिलोर जगाने का उपक्रम बनेगा। इस अवसर पर अपनी प्रबुद्ध उपस्थिति से सार्थकता प्रदान करने संस्कृति, दर्शन, धर्म, साहित्य, शिक्षा, कला और सामाजिक सेवा के विभिन्न प्रकल्पों से जुड़े मनीषी, अध्येता, संत और युवा साधक बड़ी संख्या में एकत्र हो रहे हैं।
म.प्र. शासन संस्कृति विभाग के अंतर्गत स्थापित आचार्य शंकर सांस्कृतिक एकता न्यास के इस प्रतिष्ठा आयोजन का सांस्कृतिक विन्यास गतिविधियों के सुन्दर रूपकों में श्रृंखलाबद्ध बिंधा है। ‘एकात्म पर्व’ के नाम से परिकल्पित इस पांच दिवसीय समारोह का शुभारंभ 28 अप्रैल को म.प्र. के संस्कृति, पर्यटन तथा धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व मंत्री धर्मेन्द्र सिंह लोधी करेंगे। इसी के साथ अद्वैत का संज्ञान लेते वैचारिक, आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक सत्रों का क्रम शुरू होगा।
शंकर प्रकटोत्सव के इस बहुरंगी समागम में आचार्य शंकर विरचित ग्रंथों का पारायण, शंकर संगीत, शंकर स्तोत्रों पर एकाग्र नृत्य की प्रस्तुति के साथ ही अद्वैत वेदान्त तथा आधुनिक विज्ञान तथा रील टू रियलः अवेकनिंग अद्वैत थ्रू स्टोरीटेलिंग जैसे अनूठे विषयों पर सत्र होंगे। आध्यात्मिक संत विभूतियों का वैचारिक-मार्गदर्शक सत्संग होगा। अद्वैत के प्रचार-प्रसार तथा आत्मविस्तार में संलग्न शंकरदूतों का वार्षिक समागम भी इस समारोह को नई आभा प्रदान करेगा। माधवी मधुकर झा, जयतीर्थ मेवुंडी, लोकमाता विद्याशंकर, सुधा रघुरामन और लता सिंह मुंशी जैसी कला की अग्रणी और स्थापित विभूतियाँ अपने गान-नृत्य से परिवेश को नाद स्वर की गुँजार तथा लय-ताल और देह गतियों की मनोहारी झंकार से लालित्य के रस-भाव से सराबोर करेंगी। वैशाख शुक्ल पंचमी आचार्य शंकर की जयंति पर जूना पीठाधीश्वर आचार्य महामण्डलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि की वरद उपस्थिति में मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव का सांस्कृतिक संभाषण होगा। स्वामी परमानन्द गिरि, मिथिलेशनन्दिनी शरण, श्री पूर्ण प्रज्ञा, प्रणव चैतन्य पुरी, गौरांग दास प्रभु, प्रबुद्धानन्द सरस्वती, आत्मप्रियानन्द, चिदानन्द पुरी, प्रणवानन्द सरस्वती, प्रबुद्धानन्द सरस्वती, मुकुल कानिटकर, नीलेश नीलकण्ठ ओक, गौरी महुलिकर, पंकज जोशी, रामनाथ झा, प्रवीण चतुर्वेदी, मत्युंजय गुहा मुजूमदार, विशाल चौरसिया आदि की उपस्थिति इस अनुष्ठान को अभीष्ट उर्जा प्रदान करेगी। इस अवसर का एक और महत्वपूर्ण आयाम होगा- अद्वैत अलंकरण। शंकर एकता न्यास ने अद्वैत वेदांत दर्शन के सनातन प्रवाह को उत्कर्ष प्रदान करने हेतु सन्यास परम्परा तथा अकादमिक जगत का सम्मान करने सम्मान के इस आवश्यक पक्ष को जोड़ा है। इस बार अद्वैत वेदांत के आचार्य स्वामी विदितात्मानंद सरस्वती तथा प्रो. वी. कुटुम्ब शास्त्री को अलंकृत किया जाएगा।
‘एकात्म पर्व’ के विशाल वितान में हर वर्ष आदिशंकराचार्य की स्मृतियों का जगमग संसार खुलता है। जीव, जगत और जगदीश की एकरूपता में जीवन के गहरे मर्म की सहज व्याख्या करने वाले शंकर को याद करने का यह प्रयोजन तब और भी ज़रूरी हो जाता है जब आतंक, अनाचार तथा अविश्वास की भयभीत कर देने वाली घटनाओं से सारा जगत स्तब्ध है। सद्भाव और आपसदारी में सबके शुभ-कल्याण तथा समृद्धि की कामना करने वाली सनातन परंपरा के पुनर्वास का भगीरथ बनकर ही तो शंकर का अवतार हुआ था। जीवन के आदर्श मूल्यों की प्रतिष्ठा तथा सांस्कृतिक संचेतना का सातत्य ही जगतगुरू के दर्शन और देशना का सत्य है। जीवनदायी नर्मदा के आश्रय में मांधाता पर्वत पर तपस्या में लीन शंकर की चेतना में जीवन के अविचल सच का जो प्रकाश जागा, ज्ञान की उसी प्रकाशमणि को पुनः संचित करने का यह अवसर है।
संकीर्णता के अंधेरों में भटकती मानवता को आदिशंकर ने आत्म ज्योति का सूत्र दिया- ‘‘तुम गढ़े गए इसलिए कि जो आज हो उससे बेहतर बन सको। तुम बनाए गए इसलिए कि तुम वो बनाओ, जो निर्माण का मानक बनें। तुम्हें अंजुरी इसलिए मिली कि सिर्फ़ आचमन भर न करते रहो, कुछ अर्ध्य भी चढ़ाओ! तुम्हें कंठ इसलिए मिला कि सिर्फ़ वंदना भर न करो, कर्म का उद्घोष भी करो।’’
दिलचस्प यह कि शंकराचार्य ने अद्वैत के गूढ़ अर्थ को बहुत सहजता में समझने तथा उसे आचरण में उतारने के लिए अनेक स्तरों पर समाज को प्रेरित किया। शब्द, ध्वनि, दृश्य और रूप की विविध छवियों में अद्वैत की ही छाया-माया है। उसे ठीक से परिभाषित और व्याख्यायित नहीं किया गया। यहाँ संतों की वाणी का संदर्भ बहुत ही प्रासंगिक है।
भक्ति, मन के गोमुख से फूटी गंगा है जिसके एक किनारे पर श्रद्धा है तो दूसरा किनारा आनंद की छलकती लहरों से भीगा है। साधक और विराट के बीच एक अद्भुत रसायन है। महत्वपूर्ण पहलू भक्ति की इस यात्रा में संतो के साहित्य का जुड़ना है जिसके बिना जीवन के आदर्श मूल्यों के सहज पाठ शायद संभव नहीं होते। लेकिन संत साहित्य को केवल किताबी लेखा-जोखा मानकर उसके बेशकीमती सबकों से वंचित रही हमारी बिरादरी को यह जानना भी जरूरी है कि स्वर संगीत की सोहबत में संतों की वाणी युगों के फासले तय करती आज भी कंठ और स्मृति में कायम है। सच तो यही है कि हमारे लोक जीवन की आत्मा यहीं अपना चैन तलाशती है।
मुनि तरूण सागर का कहा याद आता है- संत अध्यात्म के आकाश में इंसानियत के इन्द्रधनुष हैं। सौन्दर्य के सितार पर सद्भाव का संगीत हैं। विकृति के बाजार में संस्कृति का शंखनाद हैं। संत प्यार की पेढ़ी पर परमात्मा की प्रार्थना है। वे सदाचरण के आशीष हैं। जागरण के ताबीज हैं। अविश्वास और अनास्था के अंधेरों में उम्मीद का उजियारा हैं। अर्थहीन आवाजों के बीहड़ में जीवन के मंत्र गाती वाणी हैं। शब्द, रंग, लय, गति और स्वर को साधती ऐसी ही अमृत वाणी का आचमन करते हुए हमारी मनुष्यता ने जीवन के शाश्वत सवालों के समाधान तलाशे हैं।
एक ऐसी ही दीप शिखा की तरह समय के अंधेरों को पूरने का जतन करते हैं संत। वे कहते हैं कि जीवन उत्सव हैं। आनंद है। ऊर्जा का अनंत स्रोत है। लेकिन यह उत्सव में तब बदलता है जब आपका अन्तः करण आनंद में हो। अपनी आत्मा में झाँक कर देखें तो बाहर और भीतर का अन्तर मिट जाता है। सारी कायनात एक हो जाती है। समंदर और बूंद का फर्क मिट जाता है। तब कैसा भेदभाव, कैसी ऊँच नीच !! आशय यही कि जीवन उत्सव है और भक्ति के रंगों में उसकी अभिव्यक्ति संभव है।
आचार्य शंकर ने बताया कि भारत में भक्ति के कई रंग हैं। ऋग्वेद से चरण नापती यह यात्रा कई पड़ावों के छूती अनंत पथ पर गतिमान है। सुदूर कोनों को जोड़ता यह सय खुद से खुदी तक और खुदी से खुदा तक पहुँचने का एक सिलसिला बन जाता है। भीतर से एक आवाज उठती है और इंसानियत का दरिया बह निकलता है।
भक्ति और प्रेम में आकंठ डूबी शंकर की आत्मा में हमेशा करूणा का जल बहता रहा। शास्त्र और सिद्धांतों की जटिल गुत्थियों से परे उनकी स्वयंप्रज्ञा ने जीवन को आनंद का उत्सव ही माना। इसे ही परमपद की तरह हासिल किया और शरण में आए भक्तों के जीवन में एक आशीर्वाद की तरह समा गये। उन आशीषों की महक अब भी दिशाओं में तैर रही है।
श्रुति कहती है कि मानव देह, अनंत की यात्रा पर निकली आत्माएँ हैं। तन, उनका साधन एक अस्थाई कुटिया जिसमें कुछ समय ठहर कर, यो साधना करती है और फिर बंजारों की बस्ती की तरह, अपनी बसाहट के निशान छोड़कर आगे बढ़ जाती है। उनकी प्रकृति और जन्म जन्मांतर की यात्रा में उनके संचित तप, अलग-अलग होते हैं। हमारे ही शरीर की तरह सामान्य दिखने वाले शरीर में ऋषि आत्माएँ भी उतरती हैं। हमारी सामान्य दृष्टि, उन्हें सामान्य मनुष्य की तरह देखती है। लेकिन अपनी आध्यात्मिक यात्रा में, वो अपनी तन कुटी छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं और उनका जीवन, उनकी वाणी इस दुनिया में ठहर जाते हैं। और फिर इस ठहराव के आसपास अनगिनत आस्थाएँ, सिर झुकाती हैं। जिन्दगी की उलझनें अपने समाधान तलाशती हैं। जीवन के दुःख अपने निवारण ढूंढते हैं।
संत उस शीतल दरिया की तरह ही होते हैं, जो सभी को एक सा आश्रय देते हैं। उसकी न कोई जाति होती है, न कोई धर्म। वह तो भक्ति का साधक होता है। भक्ति, जो भारत की आदिम धरोहर है, जो जीवन की धन्यता के गीत गाती है। चारों दिशाओं में इसका उजियारा फैलता रहा है। हमारे देश में दक्षिण में त्यागराज से लेकर महाराष्ट्र के तुकाराम, उत्तर के कबीर-तुलसी से लेकर राजस्थान के रैदास-मीरा और पंजाब के नानक से लेकर आसाम के शंकर देव तक सैकड़ों संत विभूतियाँ रहीं जिनके संदेशों को आज तक परंपरा के संगीत ने हम तक पहुँचाया है। चलते-फिरते फकीरों और जनपद के गायकों से लेकर भारत की रत्न विभूतियों सुब्बलक्ष्मी, पं. भीमसेन जोशी, जसराज, कुमार गंधर्व, किशोरी आमोणकर, राजन-साजन मिश्र, पुरूषोत्तम दास जलोटा, हरिओम शरण, जगजीत सिंह, शुभा मुद्गल, अनूप जलोटा और आरती अंकलीकर से लेकर जयतीर्थ मेवुंडी और सुधा रघुरामन तक यह परंपरा अपनी व्यापकता में सबको समोती सुकून का पैगाम देती रही है। जब तक जीवन है, मनुष्य है, यह पवित्र पुकार हमारी आत्मा के आसन पर इबादत की तरह महकती रहेगी।
दरअसल यहाँ एक अलग दुनिया का द्वार खुलता है। लगता है कि हमारे जैसे शरीर में ही विद्यमान ऋषि आत्माओं की क्षमताएँ अलग होती हैं। यह कोई चमत्कार नहीं बल्कि हमारे अब तक जाने हुए संसार हमारी नज़र, हमारी सीमाओं से परा की उनकी उपस्थिति है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे हमारे सामने कोई दीवार हो तो हम आगे के दृश्य को नहीं देख सकते। किंतु हमारी सतह से ऊँची पर खड़ा व्यक्ति दीवार के उस पार भी देख सकता है क्योंकि उसकी नजर के विस्तार के सामने दीवार नहीं है।
ऋषि आत्माएँ, अपनी इच्छा शक्ति से, समय के पूरे विस्तार में विचार सकती है। वो भूतकाल में प्रवेश कर सकती हैं, वो भविष्य के किवाड़ खोल सकती हैं। शरीर समय या कोई भी भौतिक सीमा उन्हें बांध नहीं सकते किंतु महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ये ऋषि आत्माएँ ईश्वर की वह संतान होती हैं जिन्हें प्रसिद्ध गुजराती संत कवि श्नरसी मेहता ने ‘वैष्णव जन’ कहा। पराई पीर जिनसे सही नहीं जाती। दूसरों का दुःख देखते ही उनके भीतर विकल करूणा बहती है और उनकी अर्जित शक्तियाँ स्वतः लोक मंगल, लोक कल्याण की दिशा में काम करने लगती हैं। अपनी साधारण समझ और दृष्टि से उन शक्तियों को हम ‘चमत्कार’ कह बैठते हैं। जबकि वो करूणा से उपजी ‘ऋषि इच्छा’ का स्वाभाविक, साकार होता है। आदि शंकराचार्य मनुष्यता के माथे पर ऋषि परंपरा का ऐसा ही मंगल तिलक है।
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