यशवंत दीक्षित “यश”
चुपचाप रह पाना कितना है मुश्किल.
ज़ुल्म सहते जाना, कितना है मुश्किल.
हाल किसको और कहाँ तक सुनाएंगे
हर ग़म का सुनाना कितना है मुश्किल.
फरेब, रंजिशें, सितम ,साजिशें
शहर में ठिकाना कितना है मुश्किल.
मौसम-सा रोज़ बदलते हैं चेहरा
आईने को दिखाना, कितना है मुश्किल.
है बड़ी पागल तूफ़ान की भी नज़रें
चिरागों को बचाना, कितना है मुश्किल.
दिन भर के हादसे बताते हैं ख़्वाब में
नींदें सुकूँ की आना , कितना है मुश्किल.
दिल को मसोसकर तकरीरें छोड़ी “यश”
दुनियाँ से निभाना, कितना है मुश्किल
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