(अन्तर्वेदना की कहानी)
शिशिर उपाध्याय,
कल देर रात शहर से भाई का फोन आया ,कह रहा था , अब मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता,उसकी आवाज में करुणा थी निराशा झलक रही थी। फिर एक अजाने भय से मुझे देर तीसरे प्रहर तक नींद आई ही नहीं ,,सुबह उठ कर सबसे पहले मैं ने उसे मेसेज किया, भाई तुम अपना ध्यान रखना , भाई तुम मरना मत।। देखो दादा गए ,फिर दादी भी गई , बाबूजी गए तो बाई भी पीछे पीछे चली गई। अब तुम ही तो हो जो मुझे अपने घर, गाँव की खबर देते रहते हो। तुम्ही मुझे बताते हो के इस बार सावन का मेला कैसा रहा, बड़े वाले झूले आए ही नहीं,राखी पर इस बार मंझली भी नहीं आई ,तुम आ जाते तो अच्छा रहता। भादौ में त्यौहारों में अबके रौनक नहीं रही, जन्माष्टमी पर दही मटकी लटकी ही नहीं ।अतिवर्षा से फसलें सड़ गईं हैं। दशहरे पर रावण जला ही नहीं। दीपावली पर अबके मजदूर नहीं मिलने से पुताई नहीं होगी।इस बार कुछ बाल सखाओं के देवलोक गमन हो जाने से दीपावली पर उत्साह नहीं बचा है, पोते- पोती के लिए फटाखे ला दिए हैं,…..।तुम हो तो ब्याह शादी में निर्वाह कर लेते हो ,, उठावने,पगड़ी में हो आते है। तुम हो तो शहर की खबरें मिलती रहती हैं। खादी मास्साब के निधन की खबर भी तुमने उस दिन रोते रोते दी थी, जिन्होंने आजीवन सरकारी पेंशन नहीं ली और लाइब्रेरी से जो मिला उससे घर चलाया।तुम्ही हो जो मुझे समय -समय से फोन लगा मेरे हाल – समाचार लेते रहते हो, मेरे बच्चों की याद कर लेते हो , खबर -अंतर ले लेते हो,। तुम नहीं रहोगे तो मेरा खयाल कौन करेगा ,, मेरा घर /शहर आना बंद हो जाएगा अन्य परिवार जनों रिश्तेदारों से मिलना भी खत्म हो जाएगा,मेरे बाल सखाओं से भुज भेंट बंद हो जाएगी, मेरे बचपन की यादें ,धूल – धुसरित हो जाएगी , माना के सांझ हो रही है , सूर्य अपनी रश्मियाँ समेट रहा है, तुम अपना जाल समेटना मत, नहीं तो भावनाओं की मछलियाँ देर तक छटपटाएंगी, मर जाएंगी,बहना के थाल की एक राखी कम हो जाएगी , मैं अकेला रह जाऊँगा,,भाई “तुम मरना मत “भाई तुम बने रहना,,भाई तुम निराश मत होना,,मैं आता – जाता रहूँगा ,, मैं आता- जाता रहूंगा,,,
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Praveen
दादा का लेख अति मार्मिक, वर्तमान दौर के हालात को स्पर्श करता है। ये स्थिति लगभग समाज में हर जगह सामान्य तौर पर बनी हुई हैं बहुत ही मार्मिक 🙏🙏