विवेक मृदुल
आधी रात को दिखते हैं बाबूजी
बिल्कुल बाबूजी की तरह
पट्टे के पायजामे ओर कई छेदों वाली
पीली सी बनियान में
हाथ मिर के पीछे बाँधे
वो तेज तेज नापते
छोटे से बरामदे की सरहद
बुदबुदाते हुए
‘मुन्ना’ नही लौटा अब तक
आज माँगना ही है शादी के लिए
गहना-रूपैया
आखिर वही तो है बड़की का
इकलौता भैया….
….. अम्मा तो अक्सर दिखती है
बाबूजी के पैर दबाती
दीदी की शादी की बात चलाती
सहसा किसी बात पर
दोनों के बीच पसर जाता सन्नाटा
सीलिंग फैन की चिंचियाती आवाज
सिसकियों सी लगती
कराहने लगता दीवार घड़ी का सैकेंड़ काँटा
फिर आँखे पोंछती अम्मा
ठाकुरजी की ओर जाती दिखती है
और मेरी आँखों के कोरों से
कोई टीस पिघलती है
आधी रात के ख्वाबों की
बस यही बात एक अखरती है
भूलने वाली मामूली यादें
बार-बार उभरती हैं।
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