भीतर का बसन्त सुरभित हो…

सुरेश कुशवाह

पतझड़ हुए स्वयं, बातें बसन्त की करते

ऐसा लगता है

अंतिम पल में ज्यों

दीपक कुछ अधिक

चमकता है।

ऋतुएं तो आती-जाती है

क्रम से अपने

पर पागल मन देखा करता

झूठे सपने,

पहिन फरेबी विविध मुखौटे

खुद को ठगता है। ऐसा लगता है…….

बचपन औ’यौवन तो

एक बार ही आये

किन्तु बुढापा अंतिम क्षण तक

साथ निभाये,

भूल इसे क्यों मन अतीत में

व्यर्थ भटकता है।

ऐसा लगता है……….

स्वीकारें अपनी वय को

मन और प्राण से

क्यों भागें डरकर

हम अपने वर्तमान से

यौवन के भ्रम में जो मुंह का

थूक निगलता है

ऐसा लगता है……….

भीतर का बसन्त सुरभित हो जब मुस्काये

सुख-दुख में मन

समरसता के गीत सुनाए,

आचरणों में जहाँ शील, सच औ’शुचिता है।

तब ऐसा लगता है।

सम्पर्क: भोपाल/अलीगढ़

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