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भ्रम में हैं हम, रचते हैं कविताओं को…..

सुरेश कुशवाहा

भ्रम में हैं हम, रचते हैं कविताओं को

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

सदा प्रयोजन रख समक्ष

संयोजन किया अक्षरों का

भाव जगत से शब्द लिए

फिर बुनते रहे बुनकरों सा

देखा-सीखा-लिखा लगी जुड़ने

 फिर सँग में कईं विधाएँ

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

जीना सिखा दिया सँग में

जिज्ञासा के वरदान मिले

प्रश्न खड़े करती कविता

उत्तर भी तो इससे ही मिले

सुख-दुख हर्षोल्लास विषाद,

विषमता,जन-मन की विपदाएँ

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

एक नई पहचान इसी से

मिली अमूल्य सुनहरी सी

मिली सोच को नई उड़ानें

सम्बल बन कर प्रहरी सी

विविध भाव धाराएँ बन कर,

 बहती रहती दाएँ-बाएँ

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

खड़े धरातल पर यथार्थ से

परिचय होने रोज लगा

नित्य-अनित्य झूठ-सच

कौन पराया अपना कौन सगा

समताबोध मिला अनुभव से,

कैसे सुखमय जीवन पाएँ

सच तो यह है, रचती रही हमें कविताएँ।

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