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वो पिटाई के दिन, कुटाई के दिन

व्यंग्य –

डॉ. हरीशकुमार सिंह

 प्रदेश सरकार ने शासकीय-अशासकीय विद्यालयों में शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों को शारीरिक दंड देने पर प्रतिबंध लगा दिया है और आदेश की अवहेलना करने वाले शिक्षकों के विरुद्ध अनुशासनात्मक और कानूनी कार्यवाही करने का फरमान जारी किया है। सरकार का यह आदेश हमारे स्कूलों में बरसों से चली आ रही कुटाई – पिटाई परम्परा के विरुद्ध है। आजकल के स्कूल के छात्रों को पता नहीं क्या हो गया है कि कक्षा में जरा सी पिटाई की सजा मिलने पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं और पालक भी मीडिया सहित स्कूल प्रबंधन पर दवाब बनाकर बेचारे मास्टरजी को कटघरे में खड़ा कर निलंबित वगैरह करवा कर ही दम लेते हैं। स्कूलों में मास्टर की तो कोई बख़त ही नहीं रह गई लगती है। हमें तो अपने स्कूल के वो दिन याद आते हैं जब मास्टर जी का दबदबा थानेदार से ज्यादा हुआ करता था और उनकी आँखों में इतना डर होता था कि छात्र काँप उठते थे। आजकल छात्र तरह तरह की उजबक कटिंग करवा के स्कूल चले जाते हैं और कोई कुछ नहीं कहता है और हमारे समय में थोड़े से भी सिर के बाल बड़े होने पर, अनुशासनहीनता समझकर मास्टर जी ज़ोर से बाल खींचते थे जिसका अर्थ होता था कि अगले दिन कटिंग करवा के ही स्कूल आना है। माँ-बाप जब बच्चे को पहली बार स्कूल में भर्ती कराने जाते थे तो गुरुकुल की तरह, बच्चे की पूरी जवाबदारी मास्टर जी को ही सौंप कर खुश होते थे, इस ऐलान के साथ कि आप इसे चाहे जैसे पढ़ाओ, मारो, पीटो, कूटो बस बच्चा पास होना ही चाहिए।

      तब के स्कूल की पिटाई कई तरह की हुआ करती थी। मास्टरजी का हथेली पर आड़ी स्केल के बजाय खड़ी स्केल से मारना चीख निकलवा देता था। डंडा जिस पर एक स्टील की गोल मूठ लगी होती थी जिसे रूल कहा जाता था अति उद्दंड छात्रों की पिटाई के लिए रिजर्व रहता था। इस रूल के बारे में मान्यता थी कि मास्टरजी छुट्टी के दिन खाली समय में स्वयं इसे सरसों का तेल पिलाकर मजबूत रखते थे जिससे हथेली पर पड़ने पर, छात्र को दुबारा शरारत करने के लिए सोचना पड़े। मास्टरजी के द्वारा चलती क्लास में अचानक से कान उमेठ देना ,बांह पर मोटी या बारीक चिमटी खोडना, ट्वेंटी ट्वेंटी की तरह फटाफट हुआ करता था जिसका कोई हिसाब नहीं रखा जाता था। छात्रों को उठक बैठक लगाने की सजा पहली कक्षा से मिलना चालू हो जाती थी जिससे छात्रों का स्टेमिना बढ़ता था। कक्षा के दौरान मस्ती करने या होमवर्क नहीं करने पर आखरी में स्टूल पर खड़ा होने की सजा भी मिलती थी। सबसे ऊर्जावान और लोकप्रिय सजा थी छात्र को मुर्गा बनने की सजा देना। इसमें पीछे से मार भी पड़ती थी बोनस में। मुर्गा बनने पर जब थकने पर कमर झुक जाती थी तो सीधे और कडक मुर्गा बने रहने की चेतावनी दी जाती थी। जिस देश के स्कूलों में बच्चों की पिटाई का ऐसा शानदार इतिहास रहा हो तथा पिटाई के कारण ही एक से एक होनहार छात्र निकले हों वहाँ आजकल मामूली पिटाई पर बवाल मचाना या पिटाई नहीं करने का आदेश निकाल देना कतई ठीक नहीं है। मेहनत से कमाया धन और कान खिंचवाकर पाया ज्ञान स्थायी होते हैं। भय बिन होये न प्रीति अत  मास्टरजी की ठुकाई, पिटाई और कुटाई से ही छात्रों का और देश का भविष्य उज्जवल संभव है।

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