राजमाला आर्या
ना जाने कहाॅं खो गयीं वो चिट्ठियाॅं…?
जिसने रिश्तों के ना जाने कितने रंग रूप देखें हैं !
कहीं प्यार भरी पाती पिया की …
तो कहीं जन्म की बधाईयाॅं लिखीं हैं !
बुलावे से लेकर मृत्यु तक ….
सबके दुःख सुख की साक्षी चिट्ठी बनी हैं!
चिट्ठी को सहेजते वो काॅंपते हाथों की हलचल …
आज भी जीवंत लगती है…!
हर घर मे क़रीने से बंधी एक तार में पिरोई चिट्ठी …
आंखों में जैसें दिखती है !
टुटे -फुटे ,टेढ़े -मेढे़ अक्षरों में भावनाओं के सुंदर मोती दिखतें हैं !
कहीं अनपढ़ता भी बाध्य ना कर सकी उस प्यार दुलार को कभी …
किसी ओर से लिखवाई चिट्ठी में भी भावनाओं के वो सागर झलकते हैं!
पत्र की प्रतिक्षा में तुम्हारी….
शब्द कितनें भावनाओं के सागर उड़ेलते है !
बड़ों को प्रणाम!
छोटों को शुभाशीष!
पड़ोसी को जय राम जी की !
अंत में भुल चूक की माफी मांगती …
वो चिट्ठियों में व्यवहार के सलीके दिखतें हैं !
वो चिट्ठियां ना जाने कहाॅं खो गई है …?
चिट्ठियों में जी लेते थें जो प्रगाढ़ रिश्तें-नाते …
वो परवाह ,वो प्यार वाले ना जाने कहाॅं आज चिट्ठियों से ही गुम हैं ?
शोर मचाती इन मोबाइल फोन की घंटियों में …
प्यार, मनुहार ओर संवेदना मानों जैसे गुम हैं ….!
स्वार्थ के पैमाने पर मानवता की चित्कार ..
ओर दौलत की अंधी दौड़ में भागते रिश्तों के पैरों में …
कुचली दबी सी लिखीं मौन चिट्ठियाॅं जैसे मानों
व्याकुल है…!
अब कोई संदेश वाहक नहीं ..
ना ही कोई डाकिया आता हैं !
ऑनलाइन का दौर है साहब अब तो …
दस्तक देकर तो घर सामान ही आता हैं !
चिट्ठियों का दौर तो हमसों के अब सिर्फ जेहन ही में रहता है !
ना जाने क्यों फिर भी मन …
आज भी कभी ना आने वाली चिट्ठी को तरसता है…!!













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