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दहलीज़ के पार

आशीष खरे

आज वह लोक लाज की दहलीज़
पार करके निकल पडी थी l
बाहर से निर्भीक साहसी,
मगर अंदर से डरी डरी,
कुछ सहमी सी थी l
निर्लज्ज, कुल्टा शब्दों को,
जीवन का अंग बना चुकी थी वह l
पीठ पर मार के निशान और टूटी चप्पल का न था कोई मलाल l
क्यों कि उसी के मन में अपने ही लिए फैसले को लेकर उठ रहे थे,कई सवाल
सही ग़लत के फैसले से मन
में आ रहे थे कई बुरे ख्याल l
लोग बिरादरी वाले नाम धरेंगे ,
सोच यही थमें जा थे पैर l
विश्वास का दामन और भगवान का लिए आसरा,
मंदिर, मस्जिद और गुरूद्वारे पर टेका माथा
और की य़ह अरदास,
नहीं तोड़ना तुम
नन्ही उम्मीदों की आस,
जब मैं लौटूं तब साथ हो मेरे रोटी संग साग l
कब तक झूठे सपनों से
बहलाकर सुलाती रहती l
घर का राशन, सब्जी भाजी
लील गई दारु की बोतल
सामान सारा बिक रहा था,
तीन पत्तों की बाजी में l
मैं केवल नारी ही नहीं बल्कि एक माँ भी हूं,
बच्चों की भूख से समझौता
कर नहीं सकती l
बच्चों के भाग्य से,
इन हाथो को काम
लौट रही थी सबला बनकर
लिये हाथों में सामान l
तुम लिखना चाह रहे हो,
मेरे संघर्षो पर आत्मकथा
क़लम दवात खत्म हो जाएगी,
थक जाओगे लिखते लिखते l
समझ नहीं पाओगे
कहाँ से शुरू कर कहां खत्म करूं l
नारी को कम न आंको ,
नारी केवल नारी नहीं,
शक्ति स्वरूपा है l
इस शक्ति के आगे तो शिव ने भी सर झुकाया है तेरी क्या बिसात है ?



कार्यक्रम अधिकारी, दूरदर्शन केंद्र

भुवनेश्वर, 9040153555

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