सुरेश कुशवाह
कमर हुई पतली, नदिया की जेठ में
खूब घाम में तपती, नदिया जेठ में।
बीच-बीच में, शर्माती सकुचाती सी
रेत से चेहरा ढँकती, नदिया जेठ में।
जलसों में भी, जल के ही चर्चे होते
अखबारों में छपती, नदिया जेठ में।
बहना छोड़ा नहीं, अभावों में उसने
मन से कभी न थकती, नदिया जेठ में।
ताप सूर्य का तो, सहर्ष सहना होगा
यही समय है पकती, नदिया जेठ में।
विचलित हुई न अवरोधों से कहीं कभी
इनको देख ठुनकती, नदिया जेठ में।
बंधनमुक्त तटों से हो, अपने दम पर
खुद की शक्ति परखती, नदिया जेठ में।
तट पर बैठे, लहर-लहर को देख रहे
पल-पल रही सरकती, नदिया जेठ में।
मेघों से उम्मीद लगी है, बरसेंगे
इंद्रदेव को जपती, नदिया जेठ में।
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