राधेश्याम रघुवंशी
कोरोना महाकारी से भारत ही नहीं वरन पूरी दुनिया परेशान है। भविष्य में पूरी दुनिया में बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी बढने वाली है। ऐसा लगता है लोकडाउन पर गरीबों की मजबूरी भारी लग रही है क्योंकि गरीब अपनी परेशानी को भूल पैदल ही अपने अपने राज्य / घर की ओर चल दिये हैं। लॉकडाउन के दौरान लाखों प्रवासी मजदूरों की वापसी पर केंद्र और राज्य सरकार के बीच रार मची हुई है, जबकि मजदूर अभी भी पैदल और चोरी-छिपे घर आने को मजबूर हैं। एक बड़ा सवाल यह भी है कि इन मजदूरों का आगे का जीवन कैसे चलेगा?
लॉकडाउन की वजह से अलग-अलग राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों की घर वापसी के लिए राज्य सरकारों ने अपनी ओर से पहल की है तो तमाम हील-हवाले और राज्यों के अनुरोध पर रेल मंत्रालय ने भी इन मजदूरों को घर पहुंचाने के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाई हैं। एक ओर ट्रेन के किराये पर जमकर विवाद हो रहा है तो इन श्रमिक स्पेशल ट्रेनों से आने वाले ज्यादातर मजदूरों की शिकायत है कि उनसे न सिर्फ किराया वसूला गया बल्कि कई घंटों की यात्रा के दौरान वो भूखे-प्यासे रहे। वहीं दूसरी ओर बड़ी संख्या में मजदूरों के लौटने से पंजाब, हरियाणा और कर्नाटक जैसे कई राज्यों की चिंताएं भी बढ़ गई हैं।
पंजाब और हरियाणा सरकार ने तो मजदूरों से वहीं रुकने और अपने घरों को न जाने का अनुरोध किया और किसी तरह की दिक्कत न होने का भरोसा दिया जबकि कर्नाटक सरकार इससे दो कदम आगे निकल गई और मजदूरों को भेजने के फैसले को ही पलट दिया। लेकिन चहुंओर इस फैसले पर उठते सवालों के बाद राज्य सरकार ने अपना फैसला फिर बदल दिया और ट्रेनों को जाने की अनुमति दे दी। विभिन्न राज्यों से यूपी और बिहार में लौटने वाले वे मजदूर हैं जो उन राज्यों में चौदह दिन की क्वारंटीन अवधि पूरी कर चुके हैं। हालांकि इन्हें अपने गृह जनपदों में घरों तक जाने के पहले टेस्टिंग से गुजरना होगा और ये घरों तक कब पहुंच पाएंगे, तय नहीं है। लेकिन इन सबके बीच सबसे बड़ी समस्या यह है कि अपनी नौकरी और छोटे-मोटे रोजगार छोड़कर आए ये मजदूर अब अपने घरों पर क्या करेंगे और जीवन निर्वाह कैसे करेंगे?
गृह राज्यों में काम देने का आश्वासन
उत्तर प्रदेश की सरकार ने बाहर से आने वाले श्रमिकों को राज्य के भीतर ही काम देने का आश्वासन दिया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अधिकारियों को रोजगार की व्यापक कार्ययोजना तैयार करने के निर्देश दिए हैं। उन्होंने बताया कि सरकार प्रदेश के सभी 7 लाख प्रवासी मजदूरों को वापस लाना चाहती है। आने वाले प्रत्येक श्रमिक और कामगार का सरकार स्किल डाटा तैयार करा रही है और होम क्वारंटीन पूरा होते ही यूपी के अंदर ही उन्हें रोजगार दिलाने की तैयारी की जा रही है। एक जिला एक उत्पाद यानी ओडीओपी योजना के जरिये हस्तकला में प्रशिक्षित प्रवासी मजदूरों को गांवों में ही काम मिल जाएगा। लेकिन सवाल यह है कि ऐसे कितने मजदूर हैं जो ओडीओपी जैसी योजना में योगदान देने के लिए प्रशिक्षित हैं। ज्यादातर मजदूर अन्य राज्यों में या तो औद्योगिक प्रतिष्ठानों में काम कर रहे थे, घरेलू कार्यों में लगे थे या फिर प्राइवेट कंपनियों में नौकरी कर रहे थे।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिछले दिनों भी श्रमिकों को स्थानीय स्तर पर ही रोजगार उपलब्ध कराने के लिए एक समिति गठित करने के निर्देश दिए थे। यह समिति बैंकों के जरिये ऋण मेले और रोजगार मेले भी आयोजित कराएगी ताकि लोगों को रोजगार के अधिक से अधिक अवसर मुहैया कराए जा सकें। समिति एमएसएमई के तहत विभिन्न उद्योगों में रोजगार के अवसर सृजित करने की संभावनाएं भी तलाशेगी। राज्य सरकार ने बाहर से लौटे मजदूरों को मनरेगा के तहत काम देने के लिए जरूरी जॉब कार्ड भी तुरंत बनवाए जाने के निर्देश दिए हैं ताकि गांवों में जल्द ही मनरेगा के तहत काम शुरू कर दिया जाए।
कैसे मिलेगा लोगों को काम?
यह कितना संभव हो पाएगा, इसे लेकर जानकारों को संशय है। पहली बात तो यह कि सरकार ने उन सात लाख प्रवासी श्रमिकों के हिसाब से कार्ययोजना तैयार करने को कहा है, जो उसकी नजर में अन्य राज्यों में काम छिन जाने के बाद आए हैं। जबकि श्रमिकों की यह संख्या इससे कहीं ज्यादा है। दस लाख से ज्यादा श्रमिक तो सिर्फ मुंबई और महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों से आए हैं। दरअसल, सरकार के पास सिर्फ वो आंकड़े हैं जो उसके साधनों से आए, जबकि अपने आप आने वालों की संख्या इससे कहीं ज्यादा है। वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द कुमार सिंह कहते हैं कि इसके लिए पंचायतों को और अधिक मजबूत, सशक्त और आत्म निर्भर बनाना पड़ेगा। वे कहते हैं, “सरकार को यह डाटा बेस तैयार करना होगा कि किन क्षेत्रों में कौन से लोग खासतौर पर प्रशिक्षित हैं।” बताया जा रहा है कि सरकार की ओर से गठित समिति इस बात की भी संभावनाएं तलाशेगी जिससे कुछ छोटे उद्योगों को ग्रामीण स्तर पर भी स्थापित किया जा सके और श्रमिकों को आस-पास ही काम मिल सके।
श्रमिक नेता राम अधार पांडेय बताते हैं, “उत्तर प्रदेश में पहले बड़ी संख्या में छोटी-बड़ी फैक्ट्रियां थीं और निजी स्तर पर भी तमाम कारखाने थे। धीरे-धीरे ये सब बंद होते गए और लोगों को रोजी-रोटी के लिए महानगरों का रुख करना पड़ा। यदि लोगों को आजीविका के लिए अपने क्षेत्र में ही काम मिलने लगे तो भला घर-परिवार को छोड़कर बाहर कौन जाना चाहेगा।” ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव अमरजीत कौर कहती हैं, “लॉकडाउन की स्थिति में सबसे जरूरी तो यह है कि मजदूरों को वित्तीय सहायता दी जाए ताकि वह अपने परिवार का पालन पोषण कर सकें। नेशनल रजिस्टर बने ताकि प्रवासी श्रमिकों का ब्यौरा दर्ज हो और उनका डाटा शेयर किया जाए और उनके हितों की रक्षा हो सके। होटल, सिनेमा, ऑटोमोबाइल जैसे क्षेत्रों में काम कर रहे मजदूरों के लिए विशेष योजनाएं बनाई जाएं ताकि इन क्षेत्रों में लगे श्रमिकों का इस्तेमाल भी हो सके और वो आर्थिक रूप से पंगु भी न होने पाएं।”
मजदूरों को वायदों पर भरोसा नहीं
राज्य सरकार ने लॉकडाउन के तीसरे चरण के साथ ही एक्सप्रेस वे और कुछ दूसरे निर्माण कार्यों को खोलकर श्रमिकों को समायोजित करने की कोशिश की है लेकिन इनमें उन्हीं श्रमिकों को काम मिला है जो पहले से यहीं काम कर रहे थे। राज्य सरकार अभी योजना बना रही है, उसके बाद उसे क्रियान्वित करना है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बड़े विश्वास के साथ कहा है कि वो दूसरे राज्यों से आए श्रमिकों को अपने ही राज्य में काम देंगे, लेकिन बाहर से आए श्रमिक अभी इस पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं। कांग्रेस विधायक आराधना मिश्रा ‘मोना’ राज्य सरकार की इन कोशिशों में गंभीरता नहीं देखती हैं। उनका कहना है कि लॉकडाउन लागू हुए डेढ़ महीने से ज्यादा बीत चुके हैं और सरकार अभी मजदूरों की समुचित वापसी का भी प्रबंध नहीं कर सकी है। वो कहती हैं, “मजदूर अभी भी अपने घर पहुंचने के लिए इधर-उधर भटक रहे हैं। ऐसे में सरकार उनके पुनर्वास की कोई व्यवस्था करेगी, इसमें संदेह है। यूपी में लाखों की संख्या में बेरोजगार लोग पहले ही घूम रहे हैं, करीब 16 लाख श्रमिकों की वापसी के बाद उन्हें सरकार काम दे देगी, इस पर विश्वास करना मुश्किल है।”
बुधवार को पंजाब से बरेली आए कुछ श्रमिकों का कहना था कि अभी तो उन्हें चौदह दिन क्वारंटीन में ही रहना है, उसके बाद वो काम के बारे में सोचेंगे। वहीं दिल्ली की एक ऑटोमोबाइल कंपनी में काम करने वाले प्रतापगढ़ के निवासी रघुवीर दयाल बेहद गुस्से में कहते हैं, “काम मिले या न मिले, दूसरी जगहों पर मजदूरों की जो दुर्दशा हुई और जिस तरीके से उनका अपमान हुआ, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया, उसे देखते हुए लगता नहीं कि ये लोग लौटकर फिर कहीं काम-धाम के लिए जाएंगे। मैं तो अब जीवन में कभी दिल्ली नहीं जाऊंगा। हम अपने गांव में रहकर खेती करके जिंदगी चला लेंगे लेकिन बाहर नहीं जाएंगे।”
कुछ दिनों पहले मजदूर दिवस बीता है, जिसमें अर्थव्यवस्था में मजदूरों के योगदान को याद कर कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। आज लॉकडाउन के कारण उत्पन्न मजदूरों की मुश्किलों की चर्चा हो रही है। कई ऐसी खबरें सामने आयी हैं, जो विचलित कर देती हैं। आप सभी ने यह खबर पढ़ी होगी कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद के पास 16 प्रवासी मजदूरों की मालगाड़ी से कट कर मौत हो गयी। ये सभी मजदूर महाराष्ट्र की एक स्टील फैक्ट्री में काम करते थे और काम बंद होने से परेशान थे। वे सभी श्रमिक स्पेशल ट्रेन पकड़ने के लिए औरंगाबाद रेलवे स्टेशन पहुंचने की कोशिश में थे, ताकि घर वापस जा सकें। चूंकि, हाइवे पर लॉकडाउन के कारण चलना संभव नहीं है, इसलिए सभी ने पटरियों का रास्ता पकड़ा। आजकल ट्रेनों की आवाजाही लगभग बंद है। इसलिए थक कर वे पटरियों पर ही सो गये। भोर में एक मालगाड़ी आयी और 16 श्रमिकों की ट्रेन से कट कर मौत हो गयी।
दूसरी ओर, सोशल मीडिया पर एक अभियान ट्रेंड कर रहा है यानी मैं भी प्रवासी मजदूर हूं, जो मजदूरों की मुश्किलों का एक तरह से माखौल है। ऐसी संवेदनहीनता की जितनी निंदा की जाए, वह कम है। अनेक मजदूर पैदल ही हजार-हजार किलोमीटर की दूरी तय करते हुए अपने घरों की ओर चल दिये हैं। पंजाब, तेलंगाना और दिल्ली के मुख्यमंत्रियों ने तो अनुरोध किया है कि प्रवासी मजदूर वापस न जाएं, अन्यथा फैक्ट्रियों में काम ठप पड़ जायेगा और खेतों में फसल की कटाई रुक जायेगी। लॉकडाउन से मजदूरों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा है, लेकिन एक बात तो साबित हो गयी है कि देश की अर्थव्यवस्था का पहिया कंप्यूटर से नहीं, बल्कि मेहनतकश मजदूरों से चलता है। यह भी स्पष्ट हो गया है कि बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा के मजदूरों के बिना किसी राज्य का काम चलनेवाला नहीं है। गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली जैसे राज्यों की जो चमक दमक नजर आती है, उसमें प्रवासी मजदूरों का बड़ा योगदान है। राज्यों की चमक दमक उनके बिना खो भी सकती है।
दरअसल, ये प्रवासी मजदूर मेहनतकश हैं, लेकिन इन मजदूरों को जैसा आदर मिलना चाहिए, वैसा नहीं मिलता है। कई राज्यों में मजदूरों को बेइज्जत करने तक की कोशिश की जाती है। कई राज्यों में बेवजह मजदूरों को निशाना भी बनाया गया है, लेकिन कोरोना ने मजदूरों और उनकी कठिनाइयों को विमर्श के केंद्र में ला दिया है। कॉरपोरेट जगत को इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि वे अपने कल-कारखाने बिहार-झारखंड जैसे राज्यों में लगाएं, जहां हुनरमंद कामगारों की भरमार है। इन मजदूरों के बिना कारोबार जगत का कामकाज कितना कठिन हो सकता है, इस विषय में उन्होंने इससे पहले कभी सोचा ही नहीं है। इनका भरपूर शोषण किया जाता है। अक्सर न्यूनतम वेतन निर्धारित नहीं होता है। काम के घंटे, छुट्टियां, कुछ भी तो निर्धारित नहीं होते हैं। दफ्तरों और कारखानों में कामगारों के लिए अमूमन आठ घंटे काम करने का प्रावधान होता है, लेकिन असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के काम के घंटे, न्यूनतम वेतन कुछ निर्धारित नहीं हैं। कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं है। जिस दिन मजदूर छुट्टी करे या बीमार पड़े, उस दिन उसकी तनख्वाह तक कट जाने का खतरा रहता है।
महानगरों में तो जाति गौण हो गयी है और उनकी जगह समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित है। उच्च वर्ग, मध्य वर्ग और कामगार हैं, जिन्हें निम्न वर्ग का माना जाता है। मुंबई में वह धारावी में रहता है, तो दिल्ली-एनसीआर में उसका डेरा खोड़ा है। बॉलीवुड ने धारावी को चर्चित कर दिया है, लेकिन खोड़ा से हम ज्यादा परिचित नहीं है। दिल्ली-नोएडा और गाजियाबाद से सटा एक गांव है, जिसका नाम है खोड़ा। यह देश का सबसे बड़ा गांव है और इसकी आबादी चार से पांच लाख है। इस पूरे क्षेत्र में कच्चे-पक्के मकान बने हुए हैं। इनमें अधिकांश अवैध हैं। बुनियादी सुविधाओं का नितांत अभाव है, जबकि यह गांव ठीक दिल्ली-एनसीआर की नाक के नीचे है। यहां बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, जिस राज्य का आप नाम लें, उसका गरीब तबका आपको मिल जायेगा। सबकी एक पहचान है कि वे सब मजदूर हैं। यह गांव दिल्ली आनेवाले हर मजदूर को पनाह देता है। कम-से-कम आधे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को यह गांव दाइयां, ड्राइवर, ऑटो चलानेवाले, बढ़ई, पुताई करनेवाले और दिहाड़ी मजदूर उपलब्ध कराता है।
सुबह से साझा ऑटो से यहां से दाइयों के जत्थे काम पर निकल पड़ते हैं। ऐसा कहा जाता है कि अगर खोड़ा के लोग हड़ताल पर चले जाएं, तो कम-से-कम आधी दिल्ली ठप हो जाए। ड्राइवर के नहीं आने से साहब लोग दफ्तर नहीं पहुंच पायेंगे और मेड के न आने से मैडम नौकरी पर नहीं पहुंच पायेंगी। यह सच है कि यूपी, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों में हम बुनियादी समस्याओं को हल नहीं कर पाये हैं। अनेक क्षेत्रों में उपलब्धि के बावजूद ये राज्य प्रति व्यक्ति आय के मामले में अब भी पिछड़े हुए हैं। हमें इन राज्यों में ही शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे, ताकि लोगों को बाहर जाने की जरूरत ही न पड़े। अच्छी शिक्षा के बगैर बेहतर भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती। हर साल दिल्ली और दक्षिण के राज्यों में पढ़ने के लिए बिहार और झारखंड के हजारों बच्चे जाते हैं।
राजस्थान के कोटा में बिहार- झारखंड के हजारों बच्चे कोचिंग के लिए जाते हैं। हमें बिहार और झारखंड को शिक्षा के केंद्र के रूप में विकसित करने की जरूरत है। हम ऐसा ढांचा विकसित करें कि हमारे बच्चों को पढ़ाई और कोचिंग के लिए बाहर जाने की जरूरत ही न पड़े। मेरा मानना है कि बिहार और झारखंड में तालमेल की काफी संभावना है। बिहार के पास उद्योग नहीं है, लेकिन बड़ी संख्या में प्रशिक्षित कामगार हैं। झारखंड में उद्योग हैं और बिजली उत्पादन में भी झारखंड आगे है। दोनों राज्य मिलकर विकास का नया मॉडल स्थापित कर सकते हैं। वक्त आ गया है कि बिहार और झारखंड भविष्य का चिंतन करें। मेरा मानना है कि जब हिंदी पट्टी के राज्य प्रगति करेंगे, तभी देश भी प्रगति कर पायेगा।