शिशिर उपाध्याय
दरअसल बहुत दिनों से माईक हाथ में नहीं आया, मैं ने सोचा चलो अब ‘माईक मोहन’बन ही जाऊँ। जब अनेक शख्शियत हाथ में लेकर तस्वीर लगाते हैं, तो फिर मैं ने भी ढ़ूँढ ही ली। वैसे माईक में फोटू आकर्षक तो लगती है, प्रभावी भी अलग लगती है । माईक का अपना अलग गुरूर है भाई साहब, जब हाथ में आ जाता है तो जलवा ही अलग होता है, मंच कोई सा भी हो, जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर जिसका हाथ में माईक वो ही मोहन, मने कि माईक नहीं मोहन की बंशी हो, चाहे जिसको वश में कर लो, वाह भाई, माईक महिमा निराली है, बरसों से इसके चाहने वाले हैं,बड़े मंचो से बारातों तक माईक वालों की बखत है। मंच कविता का हो तो चाहे जिसको उठा दो चाहे जिसको निपटा दो। राष्ट्रीय मंच हो तो फिर तो सभी को सुनना ही है। आजकल तो कराओके में बड़ा ही आसान कर दिया। मेरे एक मित्र थे उन्हें माइक हाथ में आते ही रेल्वे स्टेशन जैसी फिलिंग आ जाती थी, फिर वे वैसी आवाज बना कर बोलने लगते थे, ऐसे में अनेक बार श्रोताओं के स्थान पर यात्री गण बोल देते थे। एक मित्र जिसका आकाशवाणी में सिलेक्शन नहीं हुआ उसमें रेडियो अनाउंसर घुस जाता था। वैसे अनेकों चुटकुले बने हैं इस पर, जिसमें एक बड़ा प्रसिद्ध था, एक नेता जी का स्वास्थ्य गड़बड़ हो गया, बहुत इलाज करवाया फिर एक चिरकुट ने कहा के इनको एक माईक दे दो,दरअसल बहुत दिन से भाषण अटका है उनके गले में, और अचरज वो ठीक हो गए। आ रामा दादा एक किस्सा सुनाते थे, व्याख्यान माला में समय सीमा तय रहती थी, एक बार एक वक्ता को बुलाया, वे बहुत अच्छा बोलते थे मगर बहुत बोलते थे, दादा ने कहा के आदरणीय समय सीमा 40 मिनट है आप समझ लेना, उन्होंने कहा ठीक है आप टेबिल घंटी बजा देना, भाषण शुरू हुआ 40, 45, 50 मिनिट पर घंटी बजाई उन्होंने बंद ही नहीं किया, आखिर दादा ने उनके पैर में आलपिन चुभोई, फिर भी बंद नहीं हुआ, पिन फिर चुभोई, टेढ़ी हो गई फिर भी बंद नहीं हुआ, आखिर कर माईक को बंद किया, तब जाकर उन्हें पता चला के 70 मिनट हो गए हैं। जब उन्हें बताया के आपके पैर में आलपिन चुभाई फिर भी आपने बंद नही किया, उन्होंने हंसते हुवे कहा भाई मेरा पैर लकड़ी का नकली है, और एक सन्नाटे के बाद ठहाका लगाया। सभी ‘माईक मोनिया’वाले: माईक मोहन होन से क्षमा याचना सहित।
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