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 न शीश झुका होगा

  सौ.चंद्रमणी दफ्तरी “स्पंदन “

लाद  कंधों पर  बोझ अपने, पग-पग  आगे  बढ़े  होंगें ,
कहीं कनात, कहीं पर खंदक,
चट्टानों की ओट  ढ़ूँढ़े होंगें,
कहाँ का  खाना  कहाँ का पीना कहाँ ? सोने  के वास्ते,
दिन‐रात टोह ली  होगी बस!
कहाँ है? दुश्मन के  काफ़िले,  दुश्मनों  को देखते  ही उनका,
खून  खौल  गया  होगा,
दे  दनक-दन,  दे दनक-दन,
धावा  भी  बोला  होगा ।
जब तक श्वास  रही  होगी तन में,  हौसला बुलंद  रहा  होगा ।
छलनी न हो गया होगा तन जब तक, तब तक न शीश  झुका होगा ।।

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