परमात्मा की खोज

नैना माहेश्वरी

सदियों से यह जिज्ञासा का विषय रहा है कि हम परमात्मा की खोज कैसे करें। आत्म तत्व को हम कैसे जान सकते हैं। कैसे जुड़ सकते हैं और कैसे उसे पा सकते हैं। सारा जीवन बीत जाता है इसी उधेड़बुन में और हम उम्र के उस पड़ाव में पहुंच जाते हैं, जहां इन सवालों का उत्तर नहीं मिल पाता। इसका कारण भी सीधा है। माया का आवरण हमारे मन पर सदैव हावी रहता है। इंद्रियों के कारण हमें मोह होता है। इस कारण हम बाहरी दुनिया में उसे खोजते रहते हैं। अपने अंतर्मन में एकाग्र होकर यदि हम उसे खोजें, तो एक दिन हमें सफलता अवश्य मिल सकती है।
हम आत्मज्ञान की दिशा में आगे कैसे बढ़ें। यह जानने के लिए सबसे पहले तो हमें स्वयं को पहचानना होगा। हमारे भीतर असीम शक्तियां हैं। इंद्रियों को संयमित करके और अवगुणों का त्याग करके उन्हें हम जान सकते हैं। यह ऐसा सन्मार्ग हैं, जिसमें अनेक बाधाएं हैं। इन्हें पार करना कठिन है, पर असंभव भी नहीं है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, द्वेष और असत्य जैसे अवगुणों का हमें त्याग करना होगा। ऐसा करना तुरंत संभव नहीं है। धीरे-धीरे अपने आचरण और व्यवहार में परिवर्तन लाएंगे तो यह आसान हो जाएगा। इस बदलाव से मन, कर्म और वचन में पवित्रता आएगी।
पवित्रता हमारे व्यवहार में सरलता लाती है। इससे व्यक्ति में सहनशीलता, क्षमा, दया, अहिंसा और विनम्रता जैसे गुणों का विकास होने लगता है। इन सदगुणों के आधार पर हम संकल्प करते हैं, कि हमें परमात्मा से जुड़ना है। उसे पाना है। उससे साक्षात्कार करना है, तब हमें मार्ग का चयन करना होता है। पहला रास्ता है, तपस्या का। यह कठिन है, परंतु साधु-संतों के लिए यह संभव है। दूसरा है, भक्ति का और तीसरा मार्ग ध्यान से होकर जाता है।
गृहस्थ जीवन में इसे अपनाया और किया जा सकता है। ध्यान करने वाले साधक को यह आवश्यक है कि वह दैनिक जीवन में होने वाली नकारात्मक बातों को अनसुना करता रहे। बाहरी दुनिया के समाचार और आसपास के ऐसे समाचार जो नकारात्मक हों, उन पर वह ध्यान नहीं दे। केवल साक्षी भाव से उन्हें सुने और आसक्त हुए बिना आगे बढ़ता जाए। दूसरी बात है सकारात्मक बातों को वह अपने मन में लेता चले। सुनना, बोलना, देखना, अनुभूति करना, मनन करना, ये क्रियाएं अपने भीतर ऊर्जा को संग्रहित करने की माध्यम हैं।
अब हम ध्यान पर बैठें। ईश्वर का स्मरण श्रद्धा और विश्वास के साथ करते हुए अपने मन को एकाग्र करें। शांत होकर दोनों आंखों के बीच में नाक की सीध की ओर दृष्टि को स्थिर करने का निरंतर प्रयास करते रहें। प्रतिदिन अनुलोम- विलोम के बाद अपने अभ्यास का समय बढ़ाते चलें। कुछ दिनों में हमें पहला पड़ाव दिखने लगेगा एक दिव्य ज्योति के रूप में। फिर हमें कई दिव्य अनुभूतियां होने लगेंगी। एक दिन ऐसा आएगा, जब हमारा चित्त शांत होने लगेगा। इस अवस्था में व्यक्ति की सारी इच्छाएं अशेष हो जाती हैं। मन प्रफुल्लित रहने लगता है। इस तरह हमें अपनी आत्मा के दर्शन होने लगते हैं। आत्म तत्व की यही अनुभूति ही परम आनंद की स्थिति है।

(लेखिका ‘पर्या मित्र’ पत्रिका की संपादक हैं)।

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