प्रकृति से जुड़कर चलना हर मनुष्य का कर्तव्य

सलिल सरोज

मनुष्य को अवश्य प्रगतिशील होना चाहिए, यह मनुष्य होने की सर्वप्रथम अवधारणा भी है और मनुष्यता का धर्म भी। अगर पुरा-पाषाणिक युग में मनुष्य आग, पहिए और पत्थर के औजारों से खुश हो गया होता तो शायद हम यहाँ तक पहुँच नहीं पाते। आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है,लेकिन यह कथन तब प्रतिपादित हुआ था जब हमारी आवश्यकताएँ बहुत ही मूलभूत थी और बहुत ही स्वजनित हुआ करती थी। लेकिन उपभोगतावाद की आँधी में मनुष्य अपनी छोटी-छोटी जरूरतों को पीछे छोड़ कर किसी होड़ में लग गया हो, ऐसा प्रतीत होता है। यह बहुत नैसर्गिक है कि प्रगति के लिए नई आवश्यकताएँ उत्पन्न हों और उनको पूरा करने हेतु मनुष्य जिज्ञासु हो। लेकिन एक यक्षप्रश्न,जो सुरसा की तरह आज पूरे मानव जाति को निगलने हेतु मुँह बाए खड़ी है, वह है-क्या हमारी आज की सारी जरूरतें सच की हैं या ये जरूरतें उत्पन्न की गई हैं। इस प्रकृति का हर कण एक स्थिर अवस्था की तलाश में रहता है। एक अणु दूसरे अणु से मिलकर स्थिर होना चाहता है, मनुष्य अपने जैसे स्वभाव वालों के बीच स्थिरता की तलाश करता है, जंगल के जानवर अपनी प्रजाति के साथ रहकर अपने जीवन की आयु को बढ़ाते हैं क्योंकि उनको उसमें सुरक्षा और स्थिरता का भाव नजर आता है। लेकिन इस स्थिरता की तलाश में हम स्वयं और प्रकृति से कितने दूर होते जा रहे है,यह बहुत ही सोचनीय प्रश्न है। हम आज जिस समाज में रहते हैं, वह दरअसल एक साथ कई समाजों का समायोजन है। महानगरों में सोसाइटी में रहने वाले अक्सर एक साथ कई समाजों का जीवन जीते हैं। इसकी अच्छी बात यह है कि नई चीजों से उनका संपर्क स्थापित होता है और राष्ट्रीय एकता को भी सम्बल प्राप्त होता है। परन्तु इसके कुछ और भी पहलू हैं। सोसाइटी में हर वर्ग के लोग एक साथ रहते हैं लेकिन कोई किसी पिछड़े प्रांत से है तो कोई महानगर जैसे विकसित जगहों से। जो जिंदगी महानगर वाले रोज जीते हैं, वह जिंदगी पिछड़े प्रान्त से आने वालों के लिए अप्राप्य लगती है। उनके बच्चे भी उच्च वर्गीय बच्चों की तरह जीने की कोशिश करने लगते हैं। बच्चे ही नहीं बड़े लोग भी अपने दिनचर्या को उच्च वर्गीय दिन चर्या में ढालने की कोशिश करने लगते हैं। स्वस्थ रहने के लिए अगर दौड़ने से कम आमदनी वालों का काम चल जाता था तो अब जिम,उसके लिए जूते, कपड़े और पता नहीं कितनी ही अनावश्यक आवश्कताएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इस रेस में मनुष्य कब अपनी नैसर्गिकता से दूर हो जाता है, उसे खुद भी पता नहीं चलता। अप्राकृतिक समाज में फिट होने के लिए कितनी ही अपारम्परिक ढाँचों का शिकार हो जाता है एक प्राकृतिक मनुष्य। जिस मनुष्य को किताबें पढ़ने और गाने सुनने में आनंद आता था, वह महँगे मॉल्स और ट्रेवलिंग में वह आनंद ढूँढने लगता है और दिनों -दिन अवसाद का शिकार होता जाता है। जहाँ उसे एक कपडे से काम चल जाता था, अब वह दस कपड़ों में भी नाखुश नजर आता है, क्योंकि उसकी अपेक्षाएँ निर्मित हैं और वो दिन -ब- दिन बढ़ती ही जाती हैं। घर से बचत खत्म हो जाती है, लड़ाइयाँ शुरू हो जाती हैं, बच्चे घरेलू हिंसा का शिकार हो जाते हैं और एक स्वस्थ मनुष्य कितनी ही बीमारियों से घिर जाता है। हमारी अपेक्षाएँ हमें कितनी ही तरहों से आहत करती हैं लेकिन इससे बचने का उपाय भी हमारे हाथ में ही है।

कार्यकारी अधिकारी, लोक सभा सचिवालय,

संसद भवन, नई दिल्ली

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