प्रकाश श्रीवास्तव
श्रावण मास में जल वृष्टि वसुंधरा का श्रृंगार करती है, धरती माँ को हरीतिमा की चादर ओढ़ा कर पहाड़ों पर जल प्रपातों से उड़ते हुए मुक्ता स्वरुप जल बिंदुओं का हार पहना कर और कभी कभी पर्वतों पर मेघों का आंचल डाल कर प्रकृति को शमीर्ली नायिका के रूप में प्रस्तुत कर देती है। दादुर टर टर की आवाज से और मोर पियाँव पियाँव कर अपनी संगिनियों को बुलावा भेजते हैं, तब विरहिणी के हिय की टीस भी कह उठती है।
पी के बिन तो शीत पवन की अगन, देह झुलसाए रे, सावन आग लगाए रे। भारत में कहीं कहीं इस माह में ससुराल से मायके में आकर झूला झूलने की परंपरा है, तो परदेस में ब्याही बहन के मन की व्यथा कथा एक प्रचलित फिल्मी गीत अबके बरस भेज भैया को बाबुल सावन में लीजो बुलाए रे में बड़ी ही मार्मिक प्रतीत होती है।
श्रावण अथवा सावन, हिंदू पंचांग के अनुसार पांचवां माह होता है। इसे पावस ऋतु भी कहते हैं। यह भक्ति और प्रेम का महीना है जो अपने साथ विशेष त्योहारों को लेकर आता है, जैसे हरियाली तीज, रक्षाबंधन, नाग पंचमी इत्यादि। श्रावण भगवान शिव को समर्पित मास है पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन भी इसी माह में हुआ था जिसमें से प्रकट हुए हलाहल को भगवान शिव ने अपने कंठ में स्थित कर लिया था और भगवान नीलकंठ कहलाये थे। कहा जाता है कि विष के कारण भगवान का शरीर अत्यंत गर्म हो गया था तब देवताओं ने जल अर्पित कर उन्हें शांत किया था। इसी कारणवश भोले बाबा को जल अर्पित करने की परंपरा है। चूंकि दूध की प्रकृति भी ठंडी होती है इसलिए दूध भी अर्पित किया जाता है। यूं तो श्रावण मास में दूध अर्पित करने के कई कारण बताए जाते हैं, जैसे गायों अथवा भैंसों द्वारा कुछ ऐसे खर पतवार भी खा लिए जाते हैं जिससे दूध के विषाक्त होने का अंदेशा रहता है।
श्रावण मास में माता पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की थी इसलिए इस माह में शिव की आराधना का विशेष महत्त्व है, कहा जाता है कि श्रावण सोमवार को वृत रखने से कुंवारी युवतियों को अपेक्षित वर की प्राप्ति होती है।
यह भी कहा जाता है कि देव शयनी एकादशी से देव उठनी एकादशी तक चौमासे में भगवान विष्णु योग निद्रा में चले जाते हैं इस काल में भोलेनाथ सहित अन्य देवी देवता सृष्टि का कार्यभार सँभालते हैं। गुरु पूर्णिमा के बाद आरम्भ के कुछ दिन गुरु एवं शिक्षकों के द्वारा कार्यभार संभाला जाता है, यदि वर्तमान कैलेंडर के अनुसार देखें तो आमतौर पर भारतवर्ष में शालाओं में सत्रारंभ भी जुलाई माह में ही होता है जो श्रावण मास में ही आता है।
श्रावण मास की मादकता जहां विरहणियों में पीय मिलन की आकुलता को बढाती है वहीं जेठ, आषाढ़ की तपन के बाद वन, उपवन एवं जलाशयों के लिए उत्सव का मौसम होता है, प्रकृति अपने पोषक होने, उत्पादक होने के अनेकानेक साक्ष्य देती है। अब इसे कैसे सहेजना है यह उसकी हम से अपेक्षा है तथा हमारी परीक्षा भी है। हमें जल बहुतायत में मिला इसका संरक्षण कैसे हो, पृथ्वी की उर्वरता को अक्षुण्ण कैसे रखा जाये जिससे कल सुरक्षित हो सके। शिवमय श्रावण मास में देवों के देव महाकाल की पूजा आराधना मात्र पंचाक्षरी मंत्र ऊँ नम: शिवाय का जाप नहीं है अपितु काल की सच्ची आराधना है काल अर्थात समय के प्रबंधन को जीवन में उतारना और आत्मसात करना।
भगवान ने गरल को कंठ में ही रखा ना तो उसे अपने पूरे शरीर को विषाक्त करने दिया ना ही सृष्टि का नुकसान करने दिया इससे हमें यह सीख मिलती है कि किस प्रकार हमें बुराइयों का दमन करें उसमें लिप्त ना हों।
श्रावण मास में बहुत से श्रद्धालु कांवड़ यात्रा निकालते हैं और पवित्र नदियों का जल ला कर शिव जी का जलाभिषेक करते हैं, पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान परशुराम ने गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर पुरा महादेव मंदिर में भगवान शिव का जलाभिषेक किया था, और इसे ही कांवड़ यात्रा का आरंभ माना जाता है. कहा यह भी जाता जाता है कि श्री राम चंद्र जी ने श्री दशरथ महाराज के मोक्ष के निहितार्थ बिहार के सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल लाकर देवघर स्थित बाबा वैद्यनाथ धाम में शिवलिंग का जलाभिषेक किया था। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि श्रवण कुमार ने अपने माता पिता को कांवड़ में बैठा कर हरिद्वार तक यात्रा कराई थी वो पहले कांवड़िये थे, तो कुछ लोग रावण को भी प्रथम कांवड़िया मानते हैं। किंवदंतियां कुछ भी हों परन्तु विशुद्ध रूप से यह आस्था एवं श्रद्धा की यात्रा है। हालांकि विगत कुछ समय से कावंड़ियों द्वारा कांवड़ यात्रा के रास्ते में उत्पात के समाचार भी देखने सुनने में आये जो कि निश्चित रूप से सनातन के शांत स्वरुप के विपरीत आचरण है और निंदनीय भी ये निश्चित ही श्रद्धालुओं का कार्य तो नहीं है। कांवड़ियों को कुछ नियमों का पालन अवश्य करना चाहिए जैसे प्रतिदिन स्नान, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन, यात्रा के समय कोई भी विवाद नहीं करना, क्रोध नहीं करना एवं सात्विक भोजन करना इत्यादि।
ज्ञात हुआ है की उत्तरांचल में कांवड़ यात्रा में नकली साधू पकडे गए जिनमे विधर्मियों के साथ एक बांग्लादेशी भी था, अत: कांवड़ियों को अब यह भी ध्यान रखना होगा की जो कांवड़िया रास्ते चलते किसी प्रकार के उपद्रव के लिए उकसा रहा है, वो असली भी है या कांवड़ यात्रा को धर्म की राह से भटकाने और बदनाम करने वाले षड्यंत्रकारियों का कोई मोहरा। योगी जी की सरकार ने इस समय बहुत सतर्कता बरती है और उनका यह निर्णय की कांवड़ यात्रा के मार्ग में आने वाले भोजनालय या खान पान विक्रेताओं को अपनी पहचान दुकान के बाहर साइन बोर्ड पर उजागर करनी चाहिए। विरोधी दल सिर्फ वोट बैंक बनाने के चक्कर में ऐसे पारदर्शी नियमों का भी विरोध करते हैं। राजनीति किसी का धर्म हो सकती है लेकिन धर्म में राजनीति करने की छूट किसी को भी नहीं मिलना चाहिए।
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