विनोद नागर
दर्शकों का एक बड़ा वर्ग आज भी फिल्म के ट्रेलर, पोस्टर और उसके नाम से आकर्षित होकर खिंचा चला आता है। फिल्म का टाइटल उस साइन बोर्ड की तरह होता है जो मनोरंजन के बाजार में आपको पसंदीदा दुकान से खरीददारी का अवसर प्रदान करता है। कई बार ऊँची दूकान पर फीके पकवान मिलने की कोफ्त झेलनी पड़ती है तो कभी नाम बड़े और दर्शन खोटे की झुंझलाहट सहनी होती है। फिल्मों के अटपटे नामों का चक्कर दर्शकों का सर चकराने के लिये काफी होता है। ताजा उदाहरण के रूप में इस शुक्रवार प्रदर्शित कंगना रनौत और राजकुमार राव की ‘जजमेंटल है क्या’ को गिना जा सकता है। इस फिल्म के पोस्टर में नायक नायिका की लपलपाती जीभ पर सवार ब्लेड की धार आखिर क्या सन्देश देती है इसे समझने के लिये भले ही दिमाग पर लाख जोर दें, हाथ कुछ नहीं आएगा. सिरफिरों की सनक के आगे फिल्मी किरदार मेंटल हो या जजमेंटल क्या फर्क पड़ता है। फिल्म की बिंदास निर्माता एकता कपूर इससे पहले वीरे दी वेडिंग में भी दर्शकों को फिल्म के टाइटल से भ्रमित कर चुकी हैं. हालाँकि इस बार ‘मेंटल है क्या’ शीर्षक पर इंडियन साइकियाट्रिक सोसाइटी द्वारा फिल्म सेंसर बोर्ड के समक्ष आपत्ति दर्ज कराये जाने के बाद निर्माता को फिल्म का नाम आंशिक तौर पर बदलना पड़ा. ये वही सेंसर बोर्ड है जिसे पगला कहीं का, दिल तो पागल है, यमला पगला दीवाना जैसे नामों से कभी गुरेज न हुआ, पर किसी हिन्दी फिल्म के टाइटल में मेंटल की जगह जजमेंटल शब्द स्वीकार्य होना भाषाई समझ पर गंभीर सवाल खड़े करता है. इधर फिल्म के प्रमोशन के दौरान इसकी अति मुखर नायिका ने एक पत्रकार से पंगा (कंगना की अगली फिल्म का नाम भी यही है) लेकर बैठे ठाले जबरदस्त विवाद खड़ा कर दिया। ऐसा नहीं है कि रुपहले परदे पर मानसिक रोगियों के किरदार से दर्शकों को कोई परहेज हो. खिलौना और अनहोनी में संजीव कुमार अभिनीत पागल व्यक्ति की यादगार भूमिकाएँ कौन भूल सकता है। असित सेन की खामोशी से लेकर सतीश कौशिक की तेरे नाम और अनुराग बसु की बर्फी तक अनेक फिल्मों ने मानसिक विकार से ग्रस्त किरदारों के प्रति संवेदनशील सकारात्मक भाव जगाये हैं। डियर जिन्दगी में तो स्वयं शाहरुख ने मनोविकार चिकित्सक की भूमिका निभाई. आम तौर पर बॉलीवुड में बनी ब्लैक कॉमेडी जॉनर की गरिष्ठ फिल्में औसत दर्शकों के हाजमे पर भारी पड़ती है. सैफ अली खान की कालाकांडी भी आम दर्शकों के ऊपर से निकल गई थी। फिल्म की कहानी मुंबई में अपने ताउजी के साथ रहनेवाली डबिंग आर्टिस्ट बॉबी ग्रेवाल (कंगना रनौत) के शंकालू स्वभाव से शुरू होती है। बचपन में घरेलू हिंसा से जुड़े हादसे में माँ-बाप को गवाँ चुकी बॉबी के असामान्य व्यवहार से उसका मेनेजरनुमा बॉय फ्रेंड वरुण (हुसैन दलाल) भी खीझने लगता है. तभी बॉबी के मकान में केशव (राजकुमार राव) और उसकी पत्नी रीमा (अमायरा दस्तूर) किरायेदार के रूप में रहने आते हैं। अचानक रसोई गैस हादसे में रीमा की मौत हो जाती है. बॉबी की शंका के आधार पर केशव पर रीमा के कत्ल का आरोप लगता है लेकिन कोई सबूत न मिलने पर पुलिस केस खत्म कर देती है। बॉबी की उटपटांग हरकतों से तंग आकर घरवाले उसे ममेरी बहन मेघा (अमृता पुरी) के पास लंदन भेज देते हैं. वहां गर्भवती मेघा के पति श्रावण के रूप में केशव को पाकर बॉबी भौंचक्की रह जाती है. फ्यूचरिस्टिक रामायण 2.0 नामक नाट्य प्रस्तुति में सीता का रोल करने में बॉबी को असहज पाकर निर्देशक (जिमी शेरगिल) उसकी मदद करता है। लेकिन नाटक में सीता की अग्नि परीक्षा का भावुक प्रसंग बॉबी को केशव कुमार श्रावण की असलियत जानने पर मजबूर कर देता है। प्रारंभ में फिल्म की कलात्मक नामावली से दर्शकों को काफी उम्मीद बंधती है. कनिका ढिल्लन की पटकथा को निर्देशक प्रकाश कोवेलामुडी ने इंटरवल तक गतिमान ट्रीटमेंट दिया है. होली पर माँ-बाप की मौत, लोनावाला रिसोर्ट प्रसंग तथा लन्दन में ड्रामा रिहर्सल के दृश्यों का फिल्मांकन उम्दा बन पड़ा है. निर्देशक ने पुरानी फिल्मों के लोकप्रिय गीतों व टंग ट्विस्टर वाक्यावली का सामयिक उपयोग किया है लेकिन पेस्टीसाइड कंपनी का नाम ऑक्सीजन दिखाया जाना अखरता है. मध्यांतर के बाद दिलचस्प घटनाक्रम के अभाव में फिल्म उबाऊ बल्कि बेहद पकाऊ और बोझिल होती चली जाती है. अंत में ठगे हुए दर्शकों को पूरी की कीमत में कट चाय पिलाये जाने का अहसास होता है. लंदन के बेहतरीन लोकेशंस भी फिल्म की लचर गति को संभाल नहीं पाते। तनु वेड्स मनु, क्वीन और मणिकर्णिका की भावप्रवण अभिनेत्री विगत कुछ अरसे से फिल्मों के बजाय अपने पूर्वाग्रह तथा सनकी व्यवहार को लेकर लगातार सुर्खियों में बनी हुई है. इसका असर उनके काम पर दिखने लगा है. जटिल भूमिका में कंगना रनौत जैसी समर्थ अभिनेत्री से जो अपेक्षा की जाती है वह इस फिल्म में पूरी नहीं होती. उनका घुंघराले बालों वाला लुक दोहराव का शिकार है. राजकुमार राव भी अपने फॉर्म में नजर नहीं आते. यही हाल जिमी शेरगिल, बृजेन्द्र काला और सतीश कौशिक का है. गीत संगीत समेत फिल्म के अन्य सभी पक्ष साधारण हैं. फिल्म के संवाद-चाँद पर पानी ढूंढ लिया हमने पर धरती पर खुशियाँ नहीं ढूंढ पाए.. केचप लगा के आपको पूरा निगल जाए वो ऐसा शाकाहारी है.. एक छोटा सा काकरोच मारने के लिए पेस्टीसाइड का इतना बड़ा कैन ले आईं आप.. जब कोई हादसा होने वाला होता है तो दिल से नहीं पेट से आवाज आती है.. तुम्हारी इस सीता को देखकर तो रावण वापस श्राीलंका भाग जाएगा.. यहाँ रावण सीता को नहीं सीता रावण को ढूंढ रही है.. जब अच्छे भले आदमी की सटकती है ना तो वह बड़े से बड़े पागल को ठीक कर देता है.. हर युग में सीता पर सवाल उठे हैं कभी उसके सच पर कभी उसकी सोच पर.. जिन्हें हम समझ नहीं पाते शायद वे मेंटल होते हैं.. साभार – सुबह सवेरे