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मप्र. उर्दू अकादमी द्वारा “आत्मबोध से विश्वबोध” क़लम से मंच तक कार्यशाला एवं ‘जश्न-ए-आज़ादी मुशायरा’ आयोजित

भोपाल। मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद, संस्कृति विभाग द्वारा “आत्मबोध से विश्वबोध” क़लम से मंच तक कार्यशाला एवं ‘जश्न-ए-आज़ादी मुशायरा’ का आयोजन दिनांक 23 अगस्त, 2025 को दोपहर 2.00 बजे से जनजातीय संग्रहालय, श्यामला हिल्स भोपाल में हुआ।

   उर्दू अकादमी की निदेशक डॉ नुसरत मेहदी ने कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि “यह कार्यशाला और जश्ने आज़ादी” हमारे लिए मात्र एक आयोजन नहीं, बल्कि आज़ादी के मायनों को नई पीढ़ी तक पहुँचाने का माध्यम है। इसका केंद्रीय विषय “आत्मबोध से विश्वबोध”  हमें अपने अस्तित्व को पहचानने और समाज से जोड़ने का संदेश देता है। उर्दू भाषा और साहित्य के माध्यम से हम सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता को मज़बूत बनाना चाहते हैं।”

डॉ नुसरत मेहदी के स्वागत उद्बोधन के पश्चात कार्यशाला के अंतर्गत प्रथम सत्र में मुख्य वक्ता डॉ. विकास दवे,निदेशक – साहित्य अकादमी ने ‘आत्मबोध से विश्वबोध’ विषय पर वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए कहा कि दुनिया के हर मत, पंथ और मज़हब में आत्मयात्रा को महत्व दिया गया है। ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग आत्मबोध से ही होकर विश्वबोध तक पहुँचता है। चाहे उसे जन्नत कहें या मोक्ष, मानव जाति का सुख इसी में है। हर भाषा-साहित्य, विशेषकर लोकसाहित्य में, यही भाव सर्वाधिक प्रकट होता है। आज की उर्दू अकादमी की संगोष्ठी हम सबको आमंत्रित कर रही है,

“आइए, आत्मबोध के इस अमृत तत्व से एक स्वर्णिम दुनिया का निर्माण करें।

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मो. नोमान ख़ान ने ‘उर्दू साहित्य में सामाजिक समरसता एवं कुटुम्ब प्रबोधन’ चर्चा करते हुए कहा कि 

 इस रंग-बिरंगे संसार के सभी दृश्य, परिदृश्य और चमत्कार आत्मबोध और विश्वबोध के ही अधीन हैं। 

वास्तविकता यह है कि मानव जीवन और समाज की प्रगति और समृद्धि का रहस्य आत्मबोध एवं विश्वबोध में ही निहित है।  

गीता में श्रीकृष्ण का यह कथन:  

**”कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”**  

इन्हीं गूढ़ रहस्यों की व्याख्या करता है। इन पर अमल करके हम अपने जीवन को सभ्य और सुसंस्कृत बना सकते हैं।  

हमारे सभी धार्मिक ग्रंथ, महापुरुषों की शिक्षाएँ और साहित्यकारों की रचनाएँ सामाजिक समरसता और कुटुंब प्रबोधन से संबंधित विषयों से भरी पड़ी हैं। इनके अध्ययन से अतीत में भी लाभ उठाया गया है और वर्तमान एवं भविष्य में भी इनका अनुसरण करके जीवन और समाज के मामलों एवं समस्याओं को सुलझाकर जटिल और कांटेदार रास्तों को गुलज़ार बनाया जा सकता है।

वरिष्ठ साहित्यकार इक़बाल मसूद ने ‘उर्दू साहित्य में राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना’ विषय पर अपना वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए कहा कि उर्दू भाषा एवं साहित्य के चिंतन और दर्शन की जड़ें संस्कृत से मिलती हैं। यही कारण है कि आत्म-ज्ञान की उन अवस्थाओं का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है, जो परमात्मा को मानव की रचना और साकारता का हिस्सा मानती हैं। इसलिए, वेदांत का दर्शन उर्दू कविता और साहित्य में चिंतन बनकर नृत्य करता और रक्त बनकर बहता है। उर्दू जीने का एक सलीक़ा , सोचने का तरीक़ा और जीवन शैली भी है, और वह साझा सभ्यता का हाथ है जिसने हमें गढ़ा, बनाया और संवारा है, और वह रूप दिया है जिसे हम पहचान की एक मंजिल समझते हैं।

साहित्यकार एवं शायर डॉ. मो. आजम ‘उर्दू साहित्य में पर्यावरण संरक्षण’ विषय पर चर्चा करते हुए कहा कि प्रकृति लेखन की नियमित व्यक्तिगत मिसालें 1857 के बाद दिखाई देने लगीं। इससे पहले यह केवल किसी न किसी विधा, जैसे क़सीदा या मसनवी में, आंशिक रूप से मौजूद रहती थी। लेकिन 1870 के आसपास भारत के प्राकृतिक दृश्य, यहाँ का मौसम, यहाँ की सुबह-शाम, रातें, यहाँ के बाग़-बग़ीचे, पहाड़, नदियाँ, त्योहार, और सम्मानित व्यक्तियों पर कविताएँ लिखी जाने लगीं। उर्दू शायरी में यह क्रांति आज़ाद और हाली के प्रयासों का नतीजा थी। ग़ज़ल के मुकाबले उन्होंने नज़्म विधा को बढ़ावा दिया, और नज़्म में वह सारी विस्तृत अभिव्यक्ति की आज़ादी मिल गई, जो ग़ज़ल की तंग सीमाओं के कारण संभव नहीं थी।

जिगर साहब कहते हैं:

“शायर-ए-फितरत हूँ, जब भी फ़िक्र फरमाता हूँ मैं,

रूह बनकर ज़र्रे-ज़र्रे में समा जाता हूँ मैं।”

इस तरह सामाजिक, राजनीतिक विषयों और प्राकृतिक  दृश्यों के चित्रण का रास्ता खुल गया। प्राकृतिक शायरी की अवधारणा सामने आई। लगभग सभी बड़े शायरों ने प्रकृति के दृश्यों का चित्रण किया और अपने अनुभवों से हमें समन्वित किया।

उर्दू अकादमी की निदेशक डॉ. नुसरत मेहदी’ ने ‘उर्दू साहित्य में वंचित विमर्श (दलित, महिला एवं आदिवासी)’ विषय पर अपने विचार व्यक्त किये। इस सत्र का सफल संचालन डॉ एहसान आज़मी द्वारा किया गया। 

द्वितीय सत्र में प्रतिभागी समन्वयकों ने अपनी रचनाएं प्रस्तुत कीं जिनमें अब्दुल सलाम खोकर (रतलाम) शऊर आशना (बुरहानपुर) सूफियान क़ाज़ी (खण्डवा) मुबीन ज़ामिन (छिंदवाड़ा) सबीहा सदफ़ (रायसेन) संतोष सागर (विदिशा) राशिद राही। (जबलपुर) अनीस शाह (नरसिंहपुर) डॉ. अनीस (सीहोर) अकरम दतियावी (दतिया) अनीता मुकाती (धार) सरफराज़ भारतीय (झाबुआ) क़यामुद्दीन क़याम (खरगोन) सैयद आबिद हुसैन (भोपाल) मुकेश शांडिल्य (हरदा), अशोक सिंहासने, मिनहाज क़ुरैशी (सिवनी) मोइन ख़ान (देवास) तजदीद साक़ी (इंदौर), शबनम अली, अदीब दमोही (दमोह) शबीह हाशमी (छतरपुर) दीपक अग्रवाल (अनूपपुर) कुलदीप कुमार (उमरिया) आदर्श दुबे (सागर) चांद मोहम्मद आख़िर (टीकमगढ़), आर पी कामिल मक़सूद नियाज़ी (कटनी), शाद अहमद, सलीम रज़ा, मुक्ता सिकरवार (ग्वालियर) सुरेश सौरभ (पन्ना), सै. रिज़वान अली (बड़वानी), लक्ष्मीकांत निर्भीक, हसरत हयात (भिण्ड) अनवर ग़ाफ़िल (श्योपुर) राहुल कुम्भकार (राजगढ़), सौरभ सूर्य (नर्मदापुरम ) एवं फ़हीम अहमद के नाम शामिल हैं। इस सत्र का संचालन रिज़वानुद्दीन फ़ारूक़ी द्वारा किया गया। 

आख़िर में समापन सत्र में अखिल भारतीय मुशायरा आयोजित हुआ जिसकी अध्यक्षता भोपाल के उस्ताद शायर ज़फ़र सहबाई ने की एवं मुशायरे का संचालन अतहर शकील द्वारा किया गया। मुशायरे में जिन शायरों ने अपना कलाम पेश किया उनके नाम और अशआर निम्न हैं।

ज़फ़र सहबाई (भोपाल),

गुले आज़ादी विरासत में नहीं पाये हैं

बाग़ तक आये हैं चलते हुए अंगारों पर 

 राजेश रेड्डी (मुम्बई), 

थोड़ा हिन्दू तू भी है थोड़ा मुसलमां मैं भी हूँ

यानी इक इन्सां है तू भी एक इन्सां मैं भी हूँ

शारिक़ कैफ़ी (बरेली), 

मिल गया मिलना ही था आखिर बदल तेरा मगर

घर बदलने में बहुत सामान गायब हो गया

क़ाज़ी मलिक नवेद (भोपाल),

जब जिक्र वफ़ा निकला तो दुश्मन ने भी 

भारत से मिरे इश्क़ को तस्लीम किया 

तारा इक़बाल (लखनऊ), 

परचम के लिये हमने किया जिनका इंतिख़ाब

क़ौसे क़ुजह में सबसे हसीन वही रंग थे

अतहर शकील (मुम्बई)  

तू है रश्के ज़मीं तू है रश्के

मेरे हिन्दोस्तां मेरे हिन्दोस्तां

ज्योति आज़ाद खत्री (ग्वालियर)

पैग़ाम ए मुहब्बत अब दुनिया को सुनाना है

नफ़रत को मिटा दे जो वो दीप जलाना है

कार्यक्रम के अंत में डॉ. नुसरत मेहदी ने सभी अतिथियों एवं श्रोताओं का आभार व्यक्त किया।

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